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तुम्हारे पास समय नहीं होगा - लघु कथा

अपना टूटा चश्मा विनोद की ओर बढ़ाते हुए जमना लाल जी ने कहा – “बेटा मेरा चश्मा कई दिनों से टूटा है , और ये पर्चा लो दवाइयाँ भी “.............। विनोद झुँझला गया – “ क्या पिता जी रोज रोज खिट खिट करते रहते हो मेरे पास इन सब फालतू कामों के लिए बिलकुल समय नहीं है , मै नौकरी करूँ उसकी टेंशन झेलूँ कि आपकी समस्या देखूँ ।” जमना लाल जी कहते रह गए कि – “ बेटा ............. । ”

पर बेटे ने न सुना न उनकी ओर देखा बस अपनी धुन मे चलता चला गया । आज वे थोड़ी थोड़ी लकड़ियां ला ला  कर इकट्ठी कर रहे थे । बेटा और बहू ने पूछा – “ पिता जी ये सब क्या है ?”

वे बोले – “ मेरी चिता की सामाग्री । मैंने सोचा तुम्हारे पास फालतू कामों के लिए और फालतू लोगों के लिए समय नहीं होगा । “

 

 

अप्रकाशित एवं मौलिक

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Comment by annapurna bajpai on September 18, 2013 at 1:27pm

आदरणीय शुभ्रांशु पाण्डे जी मुगल शासक तो अपने यहाँ मकबरा इसलिए बनवाते थे कि उनका नाम न मिटे , अपने नाम के लिए करते थे । आपकी दूसरी बात का मै समर्थन करती हूँ कि एकल परिवारों मे समस्या हो जाती है , लेकिन अपने माता पिता का सम्मान करने के लिए उनका ध्यान रखने के लिए  तो ये जरूरी नहीं है । जब बच्चे छोटे होते है और माता पिता जवान तब वे अपने बच्चे के लिए  खुशियाँ जुटाने की हर संभव कोशिश करते है उनका ध्यान रखते है फिर वे ही माता पिता जब बूढ़े हो जाते है वे अपने बच्चों से थोड़ा समय मांगते है जो कि उनका हक़ है .... परंतु आज की पीढ़ी के पास उनको देने के लिए समय ही नहीं है ।

Comment by annapurna bajpai on September 18, 2013 at 1:17pm

आ0 गीतिका जी आप एकदम सही कह रही हैं , जो काम स्वतः किया जाना चाहिए उसके लिए किसी अन्य का क्या मुंह देखना । कोई कहेगा तब अपने माता पिता की देख भाल की जाएगी वह एक अहसान के रूप मे ।

Comment by annapurna bajpai on September 18, 2013 at 1:11pm

आदरणीय जितेंद्र जी आपको कथा पसंद आयी आपका हार्दिक आभार ।

Comment by vijay nikore on September 18, 2013 at 1:04pm

वास्तविक्ता को दर्शाती,

मन को झकझोरती

इस लघु कथा के लिए बधाई,

आदरणीया अन्नपूर्णा जी।

 

सादर,

विजय निकोर

Comment by Shubhranshu Pandey on September 18, 2013 at 10:01am

आदरणीया अन्न्पूर्णा जी, मुगल शाषकों का अपने लिये मकबरा बनवाने का शायद यही कारण था.

महानगरों में जहाँ एकल परिवार व्यवस्था है ,वहाँ ये समस्या आ जाती है. अकेलेपन का ये भी एक अंजाम है.

सादर.

Comment by वेदिका on September 18, 2013 at 12:48am

क्या केवल इसी कारण से  माता पिता का ख्याल रखना चाहिए बेटे और बहू को कि कल को बेटे-बहू का बुढ़ापा आएगा, तो उन्हें भी ये उपेक्षित व्यवहार मिलेगा ? फिर तो हम स्वार्थी ही हैं क्यूंकी हम अपने माता पिता कि सेवा नही कर रहे वरन हम अपना भविष्य सुरक्षित कर रहे हैं | मै सोचती हूँ कि क्यूँ भविष्य का कोई अनदेखा तथ्य हमारे ज़िंदगी मे घुसपैठ कर लेता है? 

हमारी संवेदना कहाँ चली जाती हैं ?

क्यूँ नहीं हम अपने धर्म का निर्वाह करते ?

क्यूँ नहीं हम अपने जन्मदाता को बिना किसी 'टर्म एंड कंडीशन' के देख भालते है ?

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on September 18, 2013 at 12:22am

हमारे समाज में ऐसी बातें अक्सर होती ही है, और इन बातों को ध्यान रखते हुए बेटे बहु को यह समझना चाहिए की कल को उनका भी बुढ़ापा आना ही है, और  उनके साथ, उन्ही के बेटे बहु ऐसा बर्ताव कर सकते हैं,

बहुत ही सही विषय पर बहुत हृदयस्पर्शी लघुकथा, बहुत बहुत बधाई आदरणीया अन्नपूर्णा जी

Comment by annapurna bajpai on September 17, 2013 at 11:24pm

आदरणीय अरुण शर्मा जी अपने कथा के मर्म को समझा , आपका हार्दिक आभार ।

Comment by annapurna bajpai on September 17, 2013 at 11:23pm

आदरणीया मंजरी जी आपका हार्दिक आभार ।

Comment by अरुन 'अनन्त' on September 17, 2013 at 10:52pm

आदरणीया अन्नपूर्णा जी वाह जी जगह लघुकथा पढ़कर आह निकली भीतर निकली, झकझोर दिया आपने कुछ देर तक सुन्न रह गया, पढ़ते पढ़ते मन भर गया और समाप्ति ने तो बस उफ्फ!!!!!!. बहुत बहुत बधाई इस लघुकथा पर बहुत बहुत बधाई आदरणीया.

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