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झाड़

खामोश और बेकार

न पौधा न पेड़

न छाया न आराम न हवा

सिवाय जंगली छोटे कसैले- खटमिट्ठे फल

जो भूख नही मिटाते इंसान की

और पशु की भूख

वह कभी मिटती नहीं

झाड़

एक आस जरूर देता है

काँटे सी चुभती आस

किसी के पुकारने की

उलझा है दुपट्टा काँटे मे रात -दिन

उफ ये रात

सिसकता चाँद, तारों के बीच है तन्हा 

घूरता हुआ दिन

भभकता हुआ सूरज

धकेलता है दिन अकेला

कोई तो रास्ता हो

तर्क- कुतर्क के परे

सब खत्म होना है एक रोज

तो फिर चीखना क्यों

झाड़ होना ही ठीक है

मैंने मौन बो दिया है! 

            -गीतिका 'वेदिका'

मौलिक व अप्रकाशित

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Comment

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Comment by वेदिका on November 19, 2013 at 9:50pm

आ0 अन्नपूर्णा दी!

रचना की भाव सम्प्रेषणता आपको प्रभावित कर सकी! 

आभार!!

Comment by वेदिका on November 19, 2013 at 9:48pm

आ0 आमोद जी! रचना की सुंदरता और भावनात्मक्ता सराहना हेतु आभारी हूँ!!

Comment by वेदिका on November 19, 2013 at 9:47pm

आ0 गोपाल जी! आपकी प्रतिक्रिया पा कर खुशी हुयी! प्रतिक्रिया पद्य हेतु बधाई! 

सादर!!

Comment by वेदिका on November 19, 2013 at 9:44pm

आ0 मीना दी! आपका रचना पर आना मन को हर्षित कर गया! 

आभार!!

Comment by वेदिका on November 19, 2013 at 9:43pm

संदीप भैया! प्रोत्साहन हेतु आभारी हूँ! 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on November 19, 2013 at 9:11pm

ओह..  . ग़ज़ब !

मैं फिर से आता हूँ, आदरणीया.


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by अरुण कुमार निगम on November 19, 2013 at 7:50pm

गहन अनुभूतियों का शब्द-वृक्ष, सदा पल्लवित रहे. शुभकामनायें...........

Comment by annapurna bajpai on November 19, 2013 at 7:40pm

तो फिर चीखना क्यों

झाड़ होना ही ठीक है

मैंने मौन बो दिया है! .......................... वाह !! प्रिय गीतिका सुंदर भाव सम्प्रेषण हुआ है , बधाई आपको । 

Comment by Amod Kumar Srivastava on November 19, 2013 at 7:11pm

सुंदर बहुत सुंदर भावनात्मक ... रचना ... 

एक आस जरूर देता है

काँटे सी चुभती आस

किसी के पुकारने की ...... बधाई स्वीकार करें .... 

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on November 19, 2013 at 5:48pm

मैंने मौन बो दिया है  i

अब कभी लहलहायेगी

उसकी फसल 

फिर उगेंगे कल्पना के झाड़

कांटे विरल

और तब जगमगायेगी

कविता नयी                                         सद्मरचित  मेरे पत्र पुष्प  i माननीया  i

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