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दो तरही गज़लें: राणा प्रताप सिंह

फाइलातुन फइलातुन फइलुन/फैलुन

 

मुझ पे इलज़ाम अगर लगता है

आपके ज़ेरेअसर लगता है

 

तुझमे खूबी न जिसे आये नज़र

वो बड़ा तंगनज़र लगता है

 

इक दिया हमने जलाया था कभी

अब वही शम्सो क़मर लगता है

 

ढूंढ आये हैं ख़ुशी हम घर घर

ये हमें आखिरी घर लगता है

 

यूँ तो है बात बड़ी छोटी पर

बात करते हुए डर लगता है

 

एक तेरे ही नहीं होने से

ये ज़हां ज़ेरोज़बर लगता है

 

रुख पे मुस्कान, जिगर में खंज़र

ये तो उनका ही हुनर लगता है

 

सरपरस्ती जो मिली ऐसा लगा     

धूप में जैसे शज़र लगता है

 

*************************************************************************************************

फैलुन फैलुन फैलुन फैलुन फैलुन फा

 

ग़र्द को हमने जब अपना सामान किया

कुछ तो तेरा रस्ता ही आसान किया

 

तुमने जितने पत्थर फेंके थे घर में

सबने मेरे घर को आलीशान किया

 

उनके किस्से छेड़ के महफ़िल में समझो

आखिर तुमने अपना ही नुक्सान किया

 

कुछ बातों ने ला दी महफ़िल में रौनक 

लेकिन कुछ कुछ बातों ने हैरान किया

 

आखिर कब तक फ़र्ज़ निभाता रहता वो

रोज़ के फाकों ने उसको बेईमान किया

 

पूरा हिस्सा छीन लिया थोड़ा देकर

उस पर कहते हो हमने एहसान किया  

 

नींव का बस इक पत्थर तुमने खिसकाकर

क्या जानो क्या तुमने ऐ नादान किया

 

कितनी खुश थीं शह्र की जिंदादिल सड़कें  

कुछ तक़रीरों ने फिर शह्र वीरान किया

 

थोड़ी जान अभी तक उसमे बाकी थी 

आपकी तंजिया बातों ने बेजान किया 

मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment

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Comment by SALIM RAZA REWA on December 28, 2013 at 10:23pm

रुख पे मुस्कान, जिगर में खंज़र

ये तो उनका ही हुनर लगता है -  राणा साहब खूबसूरत शेर है .,मुबारक हो

Comment by vandana on December 28, 2013 at 5:44pm

ग़र्द को हमने जब अपना सामान किया

कुछ तो तेरा रस्ता ही आसान किया

 

तुमने जितने पत्थर फेंके थे घर में

सबने मेरे घर को आलीशान किया

कितनी खुश थीं शह्र की जिंदादिल सड़कें  

कुछ तक़रीरों ने फिर शह्र वीरान किया

बहुत शानदार गज़लें आदरणीय 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on December 27, 2013 at 10:42pm

एक तेरे ही नहीं होने से

ये ज़हां ज़ेरोज़बर लगता है.. वाह ..

इस ग़ज़ल के इशारे सटीक हैं..

कितनी खुश थीं शह्र की जिंदादिल सड़कें  

कुछ तक़रीरों ने फिर शह्र वीरान किया..  .. ग़ज़ब !

दो अच्छी गज़लों के लिए दिली दाद कुबूल फ़रमाइये, राणा भाई

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on December 27, 2013 at 1:55pm

आदरणीय राना प्रताप जी

बेहतरीन गज़लों के लिए आपको  बधाई i


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on December 27, 2013 at 7:48am

आदरणीय राणा प्रताप भाई ,  दोनो ग़ज़ल बहुत खूबसूरती से कही है आपने , हर शे र लाजवाब हैं , क़ाबिले दाद हैं ॥ आपको ढेरों बधाइयाँ  ॥

एक तेरे ही नहीं होने से

ये ज़हां ज़ेरोज़बर लगता है

 

रुख पे मुस्कान, जिगर में खंज़र

ये तो उनका ही हुनर लगता है ------- वाह वाह ॥ बहुत बधाइयाँ ॥

पूरा हिस्सा छीन लिया थोड़ा देकर

उस पर कहते हो हमने एहसान किया  

 

नींव का बस इक पत्थर तुमने खिसकाकर

क्या जानो क्या तुमने ऐ नादान किया

 

कितनी खुश थीं शह्र की जिंदादिल सड़कें  

कुछ तक़रीरों ने फिर शह्र वीरान किया ---------- लाजवाब भाई ॥ ढेरों दाद ॥

Comment by coontee mukerji on December 27, 2013 at 2:52am

राणा जी वैसे तो आप दिखते कम हैं लेकिन जब दिखते हैं तो क्या गज़लों की बारीश करते हैं.मन तर हो गया...शुक्रिया.

Comment by वीनस केसरी on December 27, 2013 at 12:49am

राणा भाई सुन्दर तरही ग़ज़ल कही है

रुख पे मुस्कान, जिगर में खंज़र

ये तो उनका ही हुनर लगता है

पूरा हिस्सा छीन लिया थोड़ा देकर

उस पर कहते हो हमने एहसान किया 

वाह क्या कहने

दूसरी ग़ज़ल के आख़िरी शेर में विकट अटकाव पैदा हो रहा है 
हार्दिक आभार

Comment by ram shiromani pathak on December 27, 2013 at 12:32am

नींव का बस इक पत्थर तुमने खिसकाकर

क्या जानो क्या तुमने ऐ नादान किया///////////वाह आदरणीय बहुत खूब। आदरणीय राणा जी  हार्दिक  बधाई आपको 

 

Comment by नादिर ख़ान on December 26, 2013 at 11:12pm

नींव का बस इक पत्थर तुमने खिसकाकर

क्या जानो क्या तुमने ऐ नादान किया

 

कितनी खुश थीं शह्र की जिंदादिल सड़कें  

कुछ तक़रीरों ने फिर शह्र वीरान किया

 

थोड़ी जान अभी तक उसमे बाकी थी 

आपकी तंजिया बातों ने बेजान किया 

उम्दा शायरी आदरणीय राणा प्रताप जी बहुत खूब ....


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Rana Pratap Singh on December 26, 2013 at 8:46pm

आदरणीया कल्पना जी दोनों गज़लें आपको पसंद आईं तो लिखना सफल हुआ|

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