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सुन्दर दृश्य उत्पन्न करती हैं

एक साथ जलती ढेरों मोमबत्तियाँ

 

भीड़ से घिरी उनकी रोशनी

कसमसाकर दम तोड़ देती है

 

वातावरण में घुले नारे

खंडहर में पैदा हुई अनुगूँज की तरह

कम्पन पैदा करते हैं

 

सर्द हवाएँ

काँटों की तरह चुभती हैं

 

अँधेरा गहराता जा रहा है 

___

बृजेश नीरज

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment

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Comment by बृजेश नीरज on January 9, 2014 at 6:21pm

आदरणीय जितेन्द्र भाई, आदरणीया मीना जी आपका हार्दिक आभार!

Comment by नादिर ख़ान on January 9, 2014 at 3:53pm

सुन्दर दृश्य उत्पन्न करती हैं

एक साथ जलती ढेरों मोमबत्तियाँ

 

भीड़ से घिरी उनकी रोशनी

कसमसाकर दम तोड़ देती है

आदरणीय बृजेश जी, कम शब्दों में गहरी बात कह दी ।बहुत खूब ....


प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on January 9, 2014 at 3:18pm

बहुत जीवंत रचना है भाई बृजेश कुमार जी, कविता ज्यों ज्यों आगे बढ़ती है दृश्य चित्रण करती जाती है. इस सार्थक काव्याभिव्यक्ति हेतु मेरी हार्दिक बधाई स्वीकारें।  

Comment by अरुन 'अनन्त' on January 9, 2014 at 12:49pm

अप्रितम आदरणीय बृजेश भाई जी आपने तो शब्दकोष खाली कर दिया. बहुत बहुत बधाई स्वीकारें.

Comment by savitamishra on January 9, 2014 at 10:56am

बहुत सुंदर

Comment by Meena Pathak on January 8, 2014 at 3:44pm

वातावरण में घुले नारे

खंडहर में पैदा हुई अनुगूँज की तरह

कम्पन पैदा करते हैं

 

सर्द हवाएँ

काँटों की तरह चुभती हैं

 

अँधेरा गहराता जा रहा है ..............बेहतरीन, उम्दा रचना हेतु बधाई आप को आ० बृजेश जी 

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on January 8, 2014 at 12:34am

भीड़ से घिरी उनकी रोशनी

कसमसाकर दम तोड़ देती है..........मर्मस्पर्शी पंक्ति, बधाई स्वीकारें आदरणीय बृजेश जी

 

Comment by बृजेश नीरज on January 7, 2014 at 11:03pm

आदरणीय अविनाश जी आपका हार्दिक आभार!

Comment by AVINASH S BAGDE on January 7, 2014 at 10:49pm

भीड़ से घिरी उनकी रोशनी

कसमसाकर दम तोड़ देती है...nice

Comment by बृजेश नीरज on January 7, 2014 at 10:12pm

आदरणीय अरुण निगम जी, आपका हार्दिक आभार!

जो कुछ भी लिख पाता हूँ, सब यहीं इस मंच पर आप लोगों से ही सीखा है!

सादर!

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