बिस्तर-करवट-नींद तक
रिस आया बाज़ार
हर कश से छल्ले लिए
बातें हुई बवण्डरी
मुदी-मुदी सी आँख में
उम्मीदें कैलेण्डरी
गलबहियों के ढंग पर
करता कौन विचार..
रजनीगंधा सूँघता
लती हुआ मन रेह का
फेनिल-कॉफ़ी घूँट पर
बाँध तोड़ता देह का
अधलेटे म्यूराल* पर
बाँच रहा अख़बार
खिड़की के बाहर हवा
इतनी कब निर्लिप्त थी
गुलमोहर के गाल पर
होठ धरे संतृप्त थी
उसके दिये रुमाल पर
आँकी थी तब प्यार..
******
-सौरभ
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
******
*म्यूराल - दीवार पर उगी हुई मूर्तियाँ, भित्तिचित्र
Comment
सर्वथा एक नवीन प्रस्तुति ! अति सुन्दर और मनोहारी। आपको हार्दिक बधाई, आदरणीय सौरभ जी।
सादर,
विजय निकोर
बहुत सुन्दर .. बाजार वाद के अवांछित प्रभावों का बहुत सुन्दर चित्रण किया है
रजनीगंधा सूँघता
लती हुआ मन रेह का
फेनिल-कॉफ़ी घूँट पर
बाँध तोड़ता देह का
अधलेटे म्यूराल* पर
बाँच रहा अख़बार .. क्या कहने उम्दा ख्याल .. सिर्फ लती हुआ मन रेह का .. बात मुझे स्पष्ट नहीं हुई ... बाजार वाद ने सभी नैतिक एवं जीवन मूल्यों को बदल कर ही रख दिया है ..
वाह्ह्हह्ह मार्मिक भाव पूर्ण सुंदर अभिव्यक्ति ..........
खिड़की के बाहर हवा
इतनी कब निर्लिप्त थी
गुलमोहर के गाल पर
होठ धरे संतृप्त थी
उसके दिये रुमाल पर
आँकी थी तब प्यार..........लाजवाब ......सादर वन्दे
ओह्ह ! कितना वीभत्स दृश्य और दयनीय भी -
//बिस्तर-करवट-नींद तक रिस आया बाज़ार//
आदरणीय सौरभ भाई , लाजवाब नवगीत रचना के लिये आपाको हार्दिक बधाइयाँ ॥
खिड़की के बाहर हवा
इतनी कब निर्लिप्त थी
गुलमोहर के गाल पर
होठ धरे संतृप्त थी
उसके दिये रुमाल पर
आँकी थी तब प्यार..
बहुत सुंदर भाव चित्र! मन में उतारने के लिए बार बार पढ़ा। बहुत बहुत बधाई आपको आदरणीय सौरभ जी
बिस्तर-करवट-नींद तक
रिस आया बाज़ार.....................
खिड़की के बाहर हवा
इतनी कब निर्लिप्त थी
गुलमोहर के गाल पर
होठ धरे संतृप्त थी
उसके दिये रुमाल पर
आँकी थी तब प्यार.. ......सामयिक स्थिति की शुरूआत से ......आपने रचना का अंतिम बंध में कितनी जीवन की सुलभ आशाएं जोड़ दी है...बार बार पढ़ने को मन चाहेगा....आपके विचार विनिमय का बहुत ही सुंदर उदाहरण. आदरणीय सौरभ जी.सादर
भौतिकतावाद, नयेपन की आंधी का व्यक्ति की सोच पर हावी हो जाना, सम्पूर्ण रचना में दिखता है | " रिस आया बाज़ार " "अधलेटे म्युराल पर ", आ. सौरभ जी ! अच्छा लगा नवगीत |
बिस्तर-करवट-नींद तक
रिस आया बाज़ार/////
वाह "रिस आया" के क्या कहने
बिस्तर-करवट-नींद तक
रिस आया बाज़ार
हर कश से छल्ले लिए
बातें हुई बवण्डरी
मुदी-मुदी सी आँख में
उम्मीदें कैलण्डरी
आदरणीय सौरभ सर क्या चित्र उकेरा है अपने, बहुत ख़ूब...
आवश्यक सूचना:-
1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे
2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |
3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |
4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)
5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |
© 2024 Created by Admin. Powered by
महत्वपूर्ण लिंक्स :- ग़ज़ल की कक्षा ग़ज़ल की बातें ग़ज़ल से सम्बंधित शब्द और उनके अर्थ रदीफ़ काफ़िया बहर परिचय और मात्रा गणना बहर के भेद व तकतीअ
ओपन बुक्स ऑनलाइन डाट कॉम साहित्यकारों व पाठकों का एक साझा मंच है, इस मंच पर प्रकाशित सभी लेख, रचनाएँ और विचार उनकी निजी सम्पत्ति हैं जिससे सहमत होना ओबीओ प्रबन्धन के लिये आवश्यक नहीं है | लेखक या प्रबन्धन की अनुमति के बिना ओबीओ पर प्रकाशित सामग्रियों का किसी भी रूप में प्रयोग करना वर्जित है |
You need to be a member of Open Books Online to add comments!
Join Open Books Online