बह्र : २१२ २१२ २१२
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जाल सहरा पे डाले गए
यूँ समंदर खँगाले गए
रेत में धर पकड़ सीपियाँ
मीन सारी बचा ले गए
जो जमीं ले गए हैं वही
सूर्य, बादल, हवा ले गए
सर उन्हीं के बचे हैं यहाँ
वक्त पर जो झुका ले गए
मैं चला जब तो चलता गया
फूट कर खुद ही छाले गए
जानवर बन गए क्या हुआ
धर्म अपना बचा ले गए
खुद को मालिक समझते थे वो
अंत में जो निकाले गए
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(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Comment
आपका आशीर्वाद पाकर गद्गद हूँ आदरणीया कल्पना जी, स्नेह बना रहे
बहुत बहुत शुक्रिया बागी जी स्नेह बना रहे
बहुत बहुत शुक्रिया डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव जी
आदरणीय धर्मेंद्र जी छोटी बह्र में लाजवाब ग़ज़ल कही है आपने सादर बधाई स्वीकार करें
आदरणीय धर्मेन्द्र भाई , बहुत कम शब्दों मे , छोटी बह्र मे , लाजवाब बातें कही है आपने , आपको पूरी गज़ल के लिये दिली बधाइयाँ ॥
आ0 धमेन्द्र भाईजी, बेहतरीन गजल हुई है। हार्दिक बधाई स्वीकारें। सादर,
इस शानदार ग़ज़ल के लिए बहुत बहुत बधाई
वाह आदरणीय भाई जी वाह बेहतरीन अशआरों से पगी शानदार ग़ज़ल कही है आपने सभी अशआर पसंद आये दिली दाद कुबूल फरमाएं.
जाल सहरा पे डाले गए
यूँ समंदर खँगाले गए------------बहुत सुंदर
रेत में धर पकड़ सीपियाँ
मीन सारी बचा ले गए-----ह्रदय स्पर्शी
जो जमीं ले गए हैं वही
सूर्य, बादल, हवा ले गए
सभी शेर शानदार हैं ,बहुत सुन्दर ...बढ़िया ग़ज़ल हुई है आ० धर्मेन्द्र जी बधाई आपको
सर उन्हीं के बचे हैं यहाँ
वक्त पर जो झुका ले गए
मैं चला जब तो चलता गया
फूट कर खुद ही छाले गए
जानवर बन गए क्या हुआ
धर्म अपना बचा ले गए
खुद को मालिक समझते थे वो
अंत में जो निकाले गए....धर्मेन्द्र जी ये चाए रों शेर बहुत पसंद आये ...मेरी तरफ से हार्दिक बधाई सादर
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