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गीतिका छंद पर आधारित एक गीत : रे पथिक अविराम चलना..........(डॉ० प्राची)

रे पथिक अविराम चलना पंथ पर तू श्रेय के

बहुगुणित कर कर्मपथ पर तन्तु सद्निर्मेय के

 

मन डिगाते छद्म लोभन जब खड़े हों सामने

दिग्भ्रमित हो चल न देना लोभनों को थामने

दे क्षणिक सुख फाँसते हों भव-भँवर में कर्म जो

मत उलझना! बस समझना! सन्निहित है मर्म जो  

 

तोड़ना मन-आचरण से बंध भंगुर प्रेय के

रे पथिक अविराम चलना पंथ पर तू श्रेय के

 

श्रेष्ठ हो जो मार्ग राही वो सदा ही पथ्य है

हर घड़ी युतिवत निभाना जो मिला कर्तव्य है

राह यह मुश्किल मगर कल्याणकारी सर्वदा

जोड़ राही धैर्यवत नित कर्मफल की सम्पदा

 

गुप्त होते हैं सृजन पल कर्म-फल प्रतिदेय के

रे पथिक अविराम चलना पंथ पर तू श्रेय के

 

जटिल जीवन रागिनी पर शांत अन्तः-स्वर सदा

शांत उर को श्रव्य शाश्वत नाद शुचिकर प्राणदा

दृढ़पदा चित का पथिक पदचिह्न हो केवल सधा

सुप्त प्रज्ञा, मनस व्याकुल, फिर भला क्या सुस्वधा?

 

साध तप से, दीप सारे प्रज्ज्वलित कर ध्येय के

रे पथिक अविराम चलना पंथ पर तू श्रेय के

(मौलिक और अप्रकाशित)

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Comment

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on August 16, 2015 at 6:40pm

गीत के भावों पर आपके अनुमोदन के लिए धन्यवाद आ० माहेश्वरी कनेरी जी 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on August 16, 2015 at 6:38pm

आदरणीय सौरभ जी 

इस गीत पर आपकी विषद टिप्पणी के लिए हार्दिक धन्यवाद.

गीतिका छंद पर आधारित इस प्रयोग को आपनसे  उत्तीर्णअंक मिले देख मन हर्षित है. कथ्य तथ्य और शिल्प आपके मापदंडों पर पास होता है तो लेखन के साथ साथ चिंतन के प्रति भी आश्वस्ति बनती है. 

ये मैंने भी गहनता से अनुभव किया है कि कुछ विषय चाह कर भी बहुत सरल भाषा में प्रस्तुत किये ही नहीं जा सकते... ऐसा करने पर उनका प्रभाव व सन्देश की गरिमा दोनों ही प्रभावित होते हैं.  

इस गीत पर आपकी आश्वस्त करती प्रतिक्रया के लिए हृदयतल से धन्यवाद 

सादर 

Comment by Maheshwari Kaneri on July 16, 2014 at 6:43pm

मन डिगाते छद्म लोभन जब खड़े हों सामने

दिग्भ्रमित हो चल न देना लोभनों को थामने

दे क्षणिक सुख फाँसते हों भव-भँवर में कर्म जो

मत उलझना! बस समझना! सन्निहित है मर्म जो ,,,,इस सुन्दर भावपूर्ण  रचना के लिए हार्दिक बधाई आदरणीया प्राचीजी. 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on July 15, 2014 at 9:47pm

शास्त्रीय छन्दों की वास्तविक प्रासंगिकता आमजन से सम्बन्धित तथ्यों को साझा करने के क्रम पद्य के विभिन्न प्रारूपों को अपनाने में है, इसे कहा तो खूब जाता है लेकिन इस ओर प्रयास कम ही हो पाते हैं. कारण कई हैं. फिर भी मुख्य कारण यही है कि साहित्य के अन्यान्य मंचों पर छन्दों पर गंभीर कार्य आज कितना हो रहा है इसे सभी जानते हैं. तो फिर इनके अन्य प्रारूपों पर अभ्यास करना कितना दुरूह हो सकता है यह समझने की बात है.
किन्तु, यह भी एक सूचनात्मक तथ्य है, कि नवगीत का वैधानिक प्रारम्भ यही विन्दु है. यानि, विभिन्न छन्दों से किसी चरण या पदांश लिया गया और आजके दैनन्दिन जीवन से बिम्ब साधे गये ! लीजिये, नवगीतों का एक नया दौर प्रारम्भ हो गया.
 
यह तो हुई नवगीतों की बात. लेकिन छन्द विशेष से पद-विधान को लेकर गीतात्मक प्रारूप देना गीतकर्म का पुराना ढंग रहा है.
 
आदरणीया प्राचीजी, इन्हीं विन्दुओं के सापेक्ष गीतिका छन्द का सुन्दर प्रयोग देख कर मन अत्यंत प्रसन्न है ! इस क्रम में, आपकी इस प्रस्तुति को कथ्य और तथ्य दोनों हिसाब से एक उन्नत और सचेत उदाहरण की तरह देख रहा हूँ.

इसमें कोई संदेह नहीं कि प्रस्तुतीकरण में संप्रेषण और कथ्यात्मकता का अत्यंत सक्षम पहलू उभर कर आया है. चूँकि विषय ही श्रेय तथा प्रेय की परिधि को स्पष्ट करता हुआ है, तो शाब्दिक रूप से रचना तनिक क्लिष्ट लग सकती है. परन्तु यह भी मानने की बात है कि इस विषय को ’चलताऊ’ शब्दों में अभिव्यक्त करना न केवल इस विषय के साथ अन्याय करना होगा, बल्कि तथ्य-संप्रेषण की सटीकता को भी भोथरा करना होगा. पाठकों को शब्द प्रवाह में बहने के लिए प्रयुक्त शब्दों को अंगीकार करना ही होगा.
आदरणीया, इस विन्दु को इस मंच पर मुझसे अधिक और कौन समझ सकता है !
 
इस उन्नत गीत का प्रस्तुतीकरण इस मंच के लिए उपलब्धि है. मैं आपके इस बन्द को विशेष रूप से उद्धृत करना चाहूँगा.
 
मन डिगाते छद्म लोभन जब खड़े हों सामने
दिग्भ्रमित हो चल न देना लोभनों को थामने
दे क्षणिक सुख फाँसते हों भव-भँवर में कर्म जो
मत उलझना! बस समझना! सन्निहित है मर्म जो  
 
तोड़ना मन-आचरण से बंध भंगुर प्रेय के
रे पथिक अविराम चलना पंथ पर तू श्रेय के
 
अंतर-मनस को सचेत करते इस गीत के लिए हार्दिक बधाइयाँ, आदरणीया प्राचीजी.
शुभ-शुभ
 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on July 12, 2014 at 7:11am

रचना पर आपकी विश्वस्त करती सराहना के लिए धन्यवाद आ० रमेश कुमार चौहान जी 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on July 12, 2014 at 7:11am

आदरणीय संतलाल करुण जी 

प्रस्तुत गीत को जिस गहनता से आपने हृदयंगम किया और इसके शब्द चयन प्रवाह भाव प्रवणता पर आपने विशेष सराहना की ..वो लेखन कर्मिता के लिए एक पारितोषिक सदृश है 

हृदयतल से आपका आभार 

सादर.


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on July 12, 2014 at 7:07am

गीत के भाव आपको पसंद आये ये मेरे लिए भी संतोष का विषय है 

धन्यवाद आ० केवल प्रसाद जी 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on July 12, 2014 at 7:07am

गीत की अंतर्धारा व सन्देश पर आपके  अनुमोदन के लिए धन्यवाद आ० गिरिराज भंडारी जी 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on July 12, 2014 at 7:06am

गीत पर आपके उदार स्नेह के लिए धन्यवाद आदरणीया कल्पना रामानी जी 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on July 12, 2014 at 7:03am

आदरणीय डॉ० गोपाल नारायण श्रीवास्तव जी 

प्रस्तुत उद्बोधन पर आपकी सराहना और उत्साहवर्धन के लिए आभारी हूँ

धन्यवाद 

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