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ग़ज़ल ..तालीम-ओ-तरबीयत ने यूँ ख़ुद्दार कर दिया

गागा लगा लगा /लल /गागा लगा लगा 

तालीम-ओ-तरबीयत ने यूँ ख़ुद्दार कर दिया,
चलने से राह-ए-कुफ़्र पे इनकार कर दिया.
.

मै ज़ीस्त के सफर में गलत मोड़ जब मुड़ा,
मेरी ख़ुदी ने मुझको ख़बरदार कर दिया.
.

इज़हार-ए-इश्क़ में वो नज़ाकत नहीं रही,                      
क्या दिल की धडकनों को भी अखबार कर दिया??
.
हम आदमी थे काम के ग़ालिब तेरी तरह,   
लेकिन हमें भी इश्क़ ने बेकार कर दिया.
.
सुन ऐ हकीम अब तू दवा मैक़दे की दे, 
तेरी दवाइयों ने तो बीमार कर दिया.
.

फिर आज उनकी तल्ख़ बयानी हुई है तेज़,
फिर आज मैंने मिलने से इनकार कर दिया.
.
बरसा ख़ुदा का
नूर तो रौशन हुई ग़ज़ल,
जुगनू बना के मुझ को चमकदार कर दिया. 
.
निलेश "नूर"

मौलिक व अप्रकाशित 

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Comment

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Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on August 26, 2014 at 5:40pm

नीलेश भाई

मुझे बहुत मजा आया i क्या उम्दा शेर कहें है आपने i


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on August 26, 2014 at 5:12pm

बहुत ही खूबसूरत ग़ज़ल हुई है किसी एक शेर की क्या बात करूँ बस आप ढेरों दाद कबूलिये. 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on August 26, 2014 at 2:49pm

सही बात, आदरणीय.

यही अंतर शोएब अख्तर नहीं समझ पाये थे..  अपने तेन्दल्या और वीरू ने थर्डमैन के ऊपर से छक्कों की झड़ी लगा दी थी. .. 

हा हा हा हा...

Comment by Nilesh Shevgaonkar on August 26, 2014 at 2:34pm

सचिन तेंदुलकर upper cut मारते हुए चौका निकाल ले कोई बात नहीं .. नए खिलाड़ी को बचना चाहिए ऐसे शॉट्स से ..
न जाने कब स्लिप्स में धरा जाए :p 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on August 26, 2014 at 2:29pm

व्यक्तिगत तौर पर मैं इसे ऐब ही मानता हूँ. शायद आपने भी मेरी किसी ग़ज़ल प्रस्तुति में इस ऐब को नहीं देखा होगा.

सही भी है न, आदरणीय, जानबूझ कर ज़िन्दा मक्खी कौन निगले.. :-)))

Comment by Nilesh Shevgaonkar on August 26, 2014 at 2:24pm

शुक्रिया आ. सौरभ सर ...उत्साह वर्धन के लिए ...
मेरा मानना है कि भाव बदले बिना यदि तकाबुले रदीफ़ के दोष से मुक्ति पाई जा सके तो पा लेनी  चाहिए ...
वरना दुनिया में क्या नहीं होता (मोमिन)
सादर 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on August 26, 2014 at 2:24pm

बहुत बहुत आभार आ. नरेन्द्र सिंह जी 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on August 26, 2014 at 2:07pm

आदरणीय नीलेशभाईजी,

मतले केबाद वाले यानि पहले शेर में तकाबुले रदीफ़ का होना मैंने देखा था. लेकिन कई बार इसे इग्नोर करने लगा हूँ. कारण कई हैं. इनमें से एक महत्त्वपूर्ण कारण अधिकांश बड़े शायरों द्वारा इस ऐब को अधिक महत्व न दिय जाना भी है, जबतक कि तकाबुले रदीफ़ की सूरत एकदम से रदीफ़ का भ्रम न देने लगे. 

वैसे, उक्त शेर में आप स्वयं ही इस ऐब के होने की बात को स्वीकार कर रहे हैं और तदनुरूप सुधार का प्रयास कर रहे हैं, तो आप अपने प्रयास को बहुत ऊँचाई दे रहे हैं.  नव-हस्ताक्षरों के लिए यह एक नज़ीर होनी चाहिये.

सादर धन्यवाद आदरणीय.

Comment by Nilesh Shevgaonkar on August 26, 2014 at 1:02pm

दुसरे शेर में तकाबुले रदीफ़ है ...उसे वैसे ही स्वीकार करने का मन भी बन गया था ..लेकिन थोडा सोचने पर इस शेर को नए तरीके से कहने में सफल हुआ हूँ ..अब इस शेर को यूँ पढ़ा जाए प्लीज ..
.

जब जब क़दम बढे है ग़लत राह की तरफ,
मेरी ख़ुदी ने मुझको ख़बरदार कर दिया.
शुक्रिया 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on August 26, 2014 at 9:24am

शुक्रिया डॉ गोपाल कृष्ण भट्ट "आकुल" जी ...आपकी दाद से हिम्मत बढ़ी है 
शुक्रिया 

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