2122 2122 2122
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जिंदगी का नाम चलना, चल मुसाफिर
जैसे नदिया चल रही अविरल मुसाफिर /1
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दे न पायें शूल पथ के अश्रु तुझको
जब है चलना, मुस्कुराकर चल मुसाफिर /2
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फिक्र मत कर खोज लेंगे पाँव खुद ही
हर कठिन होते सफर का हल मुसाफिर /3
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मानता हूँ आचरण हो यूँ सरल पर
राह में मुश्किल खड़ी तो, छल मुसाफिर /4
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रात का आँचल जो फैला है गगन तक
इस तमस में दीप बनकर जल मुसाफिर /5
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है अकेलापन अभी तो दुख किसे है
साथ राहों में मिलेगा कल मुसाफिर /6
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झूठ का माना यहाँ पर व्यूह टेढ़ा
साथ तेरे सत्य का हो बल मुसाफिर /7
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है भुजंगो से भरा जग मानता हूँ
पर स्वयं को तू बना संदल मुसाफिर /8
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मौलिक और अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी ‘मुसाफिर’
Comment
आदरणीय कल्पना दी गजल की प्रशंसा कर उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक धन्यवाद ।
आदरणीय भाई आशुतोष जी गजल पर आपकी प्रतिक्रिया से जो उत्साहवर्धन हुआ है उसके लिए हर्दिक आभार ।
आदरणीय भाई खुर्शीद जी, गजल की प्रशंसा कर उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक धन्यवाद ।
आदरणीय भाईजितेंद्र जी, गजल पर आपकी उपस्थिति से जो मान बढ़ा है उसके लिए हार्दिक आभार ।
आदरणीय भाई विजय शंकर जी,गजल की प्रशंसा के लिए हार्दिक धन्यवाद ।
आदरणीया बहन राजेश जी, गजल की प्रशंसा और स्नेहाशीष के लिए हार्दिक आभार ।
अत्यंत सुंदर गजल, हर शेर लाजवाब! बहुत बहुत बधाई आदरणीय लक्षमण जी
रात का आँचल जो फैला है गगन तक
इस तमस में दीप बनकर जल मुसाफिर /5
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झूठ का माना यहाँ पर व्यूह टेढ़ा
साथ तेरे सत्य का हो बल मुसाफिर /7
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है भुजंगो से भरा जग मानता हूँ
पर स्वयं को तू बना संदल मुसाफिर /8
आदरणीय लक्ष्मण जी ..बहुत ही शानदार सन्देश देती हौसला बढ़ाती इस अच्छी ग़ज़ल के लिए तहे दिल बधायी ..सादर
है भुजंगो से भरा जग मानता हूँ
पर स्वयं को तू बना संदल मुसाफिर
वा....ह क्या बानगी है मज़ा आ गया |आदरणीय धामी साहब ,सादर अभिनन्दन
वाह! बहुत बहुत बहुत शानदार शेर कहे है आपने आदरणीय लक्ष्मण जी. हर शेर की जितनी भी तारीफ़ की जाए कम है. सच! पढ़कर बहुत अच्छी लगी आपकी गजल, तहे दिल से ढेरों बधाई आपको
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