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“सुन री छोटी ! सीख कुछ मुझसे. जब देखो मुंह उघारे घूमती रहे है, घूँघट काढ़ा कर |” “ना जीजी हम नही बन सके तुम्हारे जैसे पर्देदार ! देखी हैं हम तुम्हारी नजर.. घूँघट के पीछे से घूरे है छुटके देवर जी का शरीर जब देखो तब |” “का फायदा ऐसे घूँघट का..?” देवरानी ने पलट जवाब दे मारा जेठानी पर |

मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment by Sudhir Dwivedi on May 15, 2015 at 11:21am

आदरणीया सविता मिश्रा जी .. हार्दिक धन्यवाद 

Comment by Sudhir Dwivedi on May 15, 2015 at 11:21am

आ. रवि प्रभाकर सर जी आपकी सराहना मन मग्न कर जाती है साथ साथ अधिक परिश्रम की प्रेरणा भी देती है |सादर 

Comment by Sudhir Dwivedi on May 15, 2015 at 11:07am

आ. डॉ आशुतोष मिश्रा जी आपकी स्नेहिल टिप्पड़ी के लिए आभार | गौरवान्वित अनुभव करता हूँ आप लोगो का सानिध्य पा | सादर 

Comment by Shubhranshu Pandey on May 15, 2015 at 10:16am

आदरणीय सुधीर जी, 

पर्दे के पीछे के भाव और बाहर के व्यवहार के अन्तर को सुन्दर ढंग से प्रस्तुत किया है.

सादर.


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on May 15, 2015 at 2:50am

आदरणीय सुधीर जी इस प्रस्तुति हेतु बहुत बहुत बधाई.

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on May 15, 2015 at 12:03am

बहुत खूब, आदरणीय सुधीर जी. बहुत बढ़िया कटाक्ष करती लघुकथा. बधाई स्वीकारें

Comment by savitamishra on May 14, 2015 at 10:40pm

बढ़िया कथा ...शायद घुंघट के पीछे का सत्य अनदेखा ही रहता हैं जो आपने देख ही लिया

Comment by Ravi Prabhakar on May 14, 2015 at 10:19pm

संक्षिप्‍त और सम्‍पूर्ण लघुकथा । लघुकथा के शिल्‍प पर आपकी पकड़ बहुत मजबूत है। शुभकामनाएं । आदरणीय डा आशुतोष भाई जी, सुधीर भाई अतिसघन लघुकथाएं लिखने के विशेषज्ञ है, आपसे निवेदन है कि उनकी अन्‍य कथाओं का भी अवलोकन करें, आनंदित महसूस करेंगे। सादर ।

Comment by Dr Ashutosh Mishra on May 14, 2015 at 9:50pm

भाई सुधीर जी इस प्रयास के लिए तहे दिल बधाई सादर ,,आज पहली बार आपकी रचना के माध्यम से आपसे मिलने का मौका मिला 

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