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ग़ज़ल -नूर : ये दुआ है फ़क़त दुआ निकले

२१२२/१२१२/२२ (११२)

जब भी लफ़्ज़ों का काफ़िला निकले
ये दुआ है, फ़कत दुआ निकले.
.
कोई ऐसा भी फ़लसफ़ा निकले
ख़ामुशी का भी तर्जुमा निकले.
.
सुब’ह ने फिर से खोल ली आँखें  
देखिये आज क्या नया निकले.
.
हम कि मंज़िल जिसे समझते हैं  
क्या पता वो भी रास्ता निकले.
.
लुत्फ़ जीने का कुछ रहा ही नहीं
क्या हो गर मौत बे-मज़ा निकले?     
.
रोज़ चलता हूँ मैं, मेरी जानिब
रोज़ ख़ुद से ही फ़ासला निकले.
.
गर है कामिल^, मुजस्मासाज़^^मेरा ........... ^परफेक्ट ^^शिल्पी
ख़ामियाँ मुझ में क्यूँ भला निकले?
.
निलेश "नूर: 

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Comment by मिथिलेश वामनकर on May 18, 2015 at 10:59pm

आदरणीय नीलेश जी एक और बेहतरीन ग़ज़ल हुई है शेर दर शेर दाद कुबूल फरमाए 

इस शेर पर दिल से दाद हाज़िर है -

रोज़ चलता हूँ मैं, मेरी जानिब 
रोज़ ख़ुद से ही फ़ासला निकले.

Comment by मनोज अहसास on May 18, 2015 at 8:34pm
नमस्कार सर
आपकी दुआ मुकम्मल हो
लफ़्ज़ लफ़्ज़ कुबूल हो
बेहतरीन ग़ज़ल को नमन
Comment by narendrasinh chauhan on May 18, 2015 at 1:52pm

बेहद शानदार गजल;

Comment by Samar kabeer on May 18, 2015 at 10:49am
जनाब निलेश "नूर" जी ,आदाब,वाह वाह ,यह ग़ज़ल भी शानदार है ,शैर दर शैर दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल फ़रमाऐं ।
Comment by Shyam Narain Verma on May 18, 2015 at 10:14am
बेहद उम्दा ...बहुत बहुत बधाई आप को आदरणीय | सादर 

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