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आशिक हो पर..........."जान" गोरखपुरी

२२१२      २२१२      २२

 

फ़रियाद ये मेरी सुनो कोई

दो इश्क में मुझको डबो कोई

..

सात आसमां पार उनका गर है शह्र

कू-ए-सनम ही ले चलो कोई

..

है दोजखो जन्नत मुहब्बत में

आशिक हो पर शायर न हो कोई

..

जाने गज़ल तुम मुझको दो थपकी

बरसों न पाया मुझमें सो कोई

..

‘जान’ आखिरी वख्त अपना जाने कौन?

लो प्रीत के मनके पिरो कोई

.

जीने की ख्वाहिश फिर न जाग उट्ठे

मरता हूँ नाम उस का न लो कोई

 

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मौलिक व् अप्रकाशित (c)”जान” गोरखपुरी

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Comment

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Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on July 14, 2015 at 2:07pm

परम आदरणीय गोपाल सर!आपका अनुमोदन पाकर मन बहुत आश्वस्त हुआ!रचनाकर्म सार्थक हुआ! आभार सर!

Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on July 14, 2015 at 2:05pm

हार्दिक आभार आदरणीय नरेन्द्रसिंह जी!

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on July 14, 2015 at 9:26am

प्रिय कृष्णा

बेहतरीन . सुन्दर .

Comment by narendrasinh chauhan on July 13, 2015 at 1:29pm

सुन्दर प्रस्तुति हुई है हार्दिक बधाई 

Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on July 13, 2015 at 10:03am

आदरणीय गिरिराज सर! आपकी प्रशंसा पाकर गज़ल मुकम्मल हो गयी! हार्दिक आभार आदरणीय!

Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on July 13, 2015 at 10:01am

उत्साहवर्धन के लिए तहेदिल से शुक्रिया! आ० विनय सरजी!


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on July 13, 2015 at 8:46am

आदरणीय कृषणा भाई , लाजवाब  हर शे र बेहतरीन ! हार्दिक बधाई आपको ।

Comment by विनय कुमार on July 13, 2015 at 2:11am

// जाने गज़ल तुम मुझको दो थपकी
बरसों न पाया मुझमें सो कोई // , वाह , वाह , बहुत उम्दा पंक्तियाँ । बहुत बहुत बधाई आदरणीय जान गोरखपुरी जी इस ग़ज़ल के लिए.

Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on July 12, 2015 at 7:50pm

अंतिम शेर के सम्बन्ध में मेरे मन में कुछ संशय है उसके निवारण के लिए गुनीजनो से निवेदन हैं...

मिसरा-ए-उला में अलिफ़ वस्ल //जाग + उट्ठे= जागुट्+ठे// करना क्या सही होगा??

सानी में //मरता हूँ// का प्रयोग क्या उचित हैं??

Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on July 12, 2015 at 7:40pm

हार्दिक आभार आ० मिथिलेश सर!

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