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गज़ल - चोरों के हाथों में मत रखवाली दो ( गिरिराज भंडारी )

22  22  22  22  22  2

हाथों को पत्थर , आँखों को लाली दो

मुँह खोलो, चीखो चिल्लाओ , गाली दो

 

ऊँचे सुर में आल्हा गाओ , सरहद पर

वीरों को मंचों से मत कव्वाली दो

 

जिस बस्ती मे रहा हमेशा अँधियारा 

उस बस्ती को दिन में भी दीवाली दो

 

तुम पगड़ी पहनो ले जाओ केसरिया

लाओ सर पर मेरे टोपी जालीदो

 

छद्म वेश में राहू केतू आये फिर

अमृत नहीं उन्हे ज़हर की प्याली दो

 

कहीं मूर्खता की सीमा तो बाँधोगे

चोरों के हाथों में मत रखवाली दो

 

तुम ज़हनों को माजी तक ले कर जाना

आश्वासन हैं झूठे मत तुम ताली दो 

 

सूरज है गुस्से में, धरती बंजर है

सोच-समझ को तुम थोड़ी हरियाली दो

**************************
पुछल्ला  -
जिस महफिल की सभी सुराही खाली है
उस महफिल को साक़ी तो मतवाली दो

************************

 मौलिकएवँअप्रकाशित

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Comment

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Comment by Shyam Narain Verma on January 28, 2016 at 6:22pm
बहुत सुन्दर ... सादर बधाई स्वीकारें आदरणीय

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on January 28, 2016 at 12:01am

आदरणीय गिरिराज सर,बहुत बढ़िया ग़ज़ल हुई है,शेर दर शेर दाद ओ मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं

Comment by TEJ VEER SINGH on January 25, 2016 at 5:50pm

हार्दिक बधाई आदरणीय गिरिराज भंडारी जी!आज के हालात का खूबसूरत वर्णन!बेहतरीन गज़ल!

कहीं मूर्खता की सीमा तो बाँधोगे

चोरों के हाथों में मत रखवाली दो

Comment by Samar kabeer on January 25, 2016 at 10:39am
जनाब गिरिराज भंडारी जी आदाब,बहुत बढ़िया ग़ज़ल हुई है,शैर दर शैर दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं !

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