अगला कदम उठाते ही उसे ऐसा महसूस हो रहा था जैसे सैकड़ों टन का भार उसके पैरों पर रखा हो, वह लड़खड़ा उठा और उसने अपने साथी के कंधे का सहारा लिया, लेकिन साथी भी बहुत थका हुआ था, वह डगमगा गया, बर्फ के पर्वत पर चढ़ते हुए सेना के उन दोनों जवानों ने तुरंत एक-दूसरे को थाम लिया|
उसके साथी ने उसकी बांह को जोर से पकड़ते हुए कहा, "सोलह घंटों से चल रहे हैं, अब तो पैर उठाने की ताकत भी नहीं बची..."
"लेकिन चलना तो है ही...", उसने उत्तर दिया
"क्यों न कुछ खा लिया जाये?" साथी चलते हुए डगमगा रहा था और उसके स्वर में अधीरता थी|
वह चेहरे पर आश्चर्य के भाव लाकर बोला "हमारे जवान जो ऊपर भूखे-प्यासे दुश्मन से लड़ रहे हैं, उनके लिये खाना है, हम कैसे खा लें?"
"कुछ खा लेंगे तो ताकत आ जायेगी" बर्फ से परावर्तित होती सूरज की किरणों से परेशान होकर आँखें बंद करते हुए उसके साथी ने उत्तर दिया|
उसने सहमति की मुद्रा में गर्दन हिलाई, अपने कंधे पर लदे हुए थैले को उतारा और उसे खोल कर एक पैकेट निकालने लगा| उसी समय उसे न जाने क्या याद आया, उसने अपने साथी की तरफ देखा और कहा,
"हमने तो कल ही खाया है, वो सारे के सारे चार दिनों से भूखे हैं और तिस पर दुश्मन भी वहीँ है| चल! अब रुकना नहीं..." अंतिम फिर पंक्ति को उसने बहुत जोर से कहा, तब तक बैग पुनः उसके कंधे पर था|
यह शब्द कानों में पड़ते ही डगमगाते साथी के भी कदम सध गए और दोनों के पर्वत पर चढ़ने की गति पहले से बहुत तेज़ हो गयी|
(मौलिक और अप्रकाशित)
Comment
आदरणीय विजय निकोरे जी सर, लघुकथा पर आपकी उपस्थिति और अनुमोदन ने मेरा मनोबल बहुत बढ़ाया है, बहुत-बहुत धन्यवाद आपका|
अति सुन्दर लघु कथा के लिए हार्दिक बधाई
लघुकथा के इस प्रयास पर अपनी अमूल्य प्रतिक्रिया द्वारा मेरे उत्साहवर्धन हेतु बहुत-बहुत आभार आदरणीया कांता रॉय जी|
वाह ! मन को मन की राह दिखाती हुई बहुत खुबसूरत और सार्थक कथ्य को चिंतन दिया है आपने आदरणीय चंद्रेश जी . बधाई प्रेषित है .
लघुकथा के इस प्रयास को पसंद करने और अपनी अमूल्य प्रतिक्रिया द्वारा मेरे उत्साहवर्धन हेतु हृदय से आभारी हूँ, आदरणीया नीता कसार जी|
बहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीय शुभ्रांशु पाण्डेय जी| आपके यह सुझाव सिर-आँखों पर| मैं प्रयास करता हूँ कि इस अनुसार रचना को बदल सकूं| निवेदन है कि ऐसे ही सलाहों से नवाज़ते रहें| सादर,
आदरणीय चन्देश जी, कुछ बातें जो मुझे ज्यादा स्पष्ट नहीं हो पायीं. आपके कहे अनुसार उन्हे साझा कर रहा हूँ.
हर जवान का अपना एक बैग होता है जिसमें उसके अपने खाने पीने के साथ अन्य सामान होता है. ये बैग उनके पास हमेशा रहता है. फ़िर जवानों को,सप्लाई के रसद से खाने की क्यों जरुरत आन पडी़?
"बर्फ से परावर्तित होती सूरज की किरणों से परेशान होकर आँखें बंद करते हुए उसके साथी ने उत्तर दिया|" सेना के जवान ऎसी लम्बी यात्रा पर धूप चश्मा जरुर लगातें हैं. परेशानी को किसी और भाव के साथ प्रगट किया जा सकता है.
इन बिन्दुओं पर मेरा ध्यान गया था. वैसे मंच के कुछ गुनी जन जो सेना के सम्पर्क में हैं विस्तार से बता सकते हैं. इन बिन्दुओं को ला कर मैं कथा को और वस्तविकता के करीब लाना चाहता हूँ. सादर.
आदरणीय शुभ्रांशु पाण्डेय जी सर, इस प्रयास पर आपकी यह टिप्पणी मेरे लिये बहुत मायने रखती है| मैं बहुत शुक्रगुज़ार होऊंगा, यदि आप यह मार्गदर्शन करें कि सेना की तकनीकी दृष्टि से इस रचना में क्या कमियाँ रह गयी हैं? आपका एक इशारा भी बहुत होगा और रचना को उचित करने में काफी सहायता करेगा| सादर,
लघुकथा के इस प्रयास को पसंद करने और अपनी अमूल्य टिप्पणी द्वारा मेरा उत्साहवर्धन करने हेतु सादर आभारी हूँ आदरणीया कल्पना भट्ट दी|
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