बह्र : २१२ १२२२ २१२ १२२२
आ मेरे ख़यालों में हाज़िरी लगा दीजै
मन की पाठशाला में मेरा जी लगा दीजै
फिर रही हैं आवारा ये इधर उधर सब पर
आप इन निगाहों की नौकरी लगा दीजै
दिल की कोठरी में जब आप घुस ही आये हैं
द्वार बंद कर फौरन सिटकिनी लगा दीजै
स्वाद भी जरूरी है अन्न हज़्म करने को
प्यार की चपाती में कुछ तो घी लगा दीजै
आग प्यार की बुझने लग गई हो गर ‘सज्जन’
फिर पुरानी यादों की धौंकनी लगा दीजै
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(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Comment
आदरणीय रवि शुक्ला जी व्यक्तिगत लेने जैसा कुछ भी नहीं है। जब कोई रचना जनगण के साथ साझा की जाती है तो हर एक को उस पर अपनी राय देने का अधिकार होता है और हर व्यक्ति की पसंद नापसंद अलग अलग होती है। अपनी बेबाक राय रखने के लिए आपका तह-ए-दिल से शुक्रिया
बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय राजेश कुमारी जी।आपके सुझावों से एक नया ही मिसरा सूझ गया
आँच प्यार की धीमी पड़ रही हो गर ‘सज्जन’
बहुत बहुत शुक्रिया
वाह्ह्ह वाह बहुत सुंदर ग़ज़ल कही है आद० धर्मेन्द्र जी सभी अशआर अलग अंदाज लिए हुए हैं दिल से दाद कुबूलें
आग प्यार की बुझने लग गई हो गर ‘सज्जन’---इस को इस तरह कह सकते हैं --
आग प्यार की बुझने जा रही अगर ‘सज्जन’ या ..
आग प्यार की बुझने को हुई हो गर ‘सज्जन’
आदरणीय समर साहब, आप ठीक कह रहे हैं इसे भी दूर करना होगा
आदरणीय सौरभ जी, सही पकड़े हैं :)))
//इसलिए मैं सबसे पहले रचनाएँ यहीं प्रकाशित करता हूँ। //
आदरणीय धर्मेन्द्रजी, यह बाइ च्वाइस न हो कर बाइ कम्पल्सन है. क्योंकि नियमतः कोई रचना कही ऑन-लाइन प्रकाशित हो जाने के बाद ओबीओ के पटल पर प्रस्तुत भी तो नहीं की जा सकती !
:-))
शुभ-शुभ
आदरणीय गोपाल नारायण जी, सौरभ जी एवं गिरिराज भंडारी जी ग़ज़ल पर आपकी बेबाक राय के लिए मैं तह-ए-दिल से आपका शुक्रगुज़ार हूँ। इस मंच पर मुझे विश्वास रहता है कि बिना किसी लाग लपेट के त्रुटियों की तरफ ध्यान दिलाया जाएगा इसलिए मैं सबसे पहले रचनाएँ यहीं प्रकाशित करता हूँ। ग़ज़ल में उचित संशोधन कर रहा हूँ।
आदरणीय धर्मेन्द्र भाई , अच्छी ग़ज़ल कही है , सभी अशआर बहुत अच्छे हुये हैं । दिल से बधाइयाँ आपको । आदरणीय सौरभ भाई जी की बातों से मै भी सहमत हूँ - कर के और शिकश्ते नारवा के संदर्भ में ।
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