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आ मेरे ख़यालों में हाज़िरी लगा दीजै (ग़ज़ल)

बह्र : २१२ १२२२ २१२ १२२२

 

आ मेरे ख़यालों में हाज़िरी लगा दीजै

मन की पाठशाला में मेरा जी लगा दीजै

 

फिर रही हैं आवारा ये इधर उधर सब पर

आप इन निगाहों की नौकरी लगा दीजै

 

दिल की कोठरी में जब आप घुस ही आये हैं

द्वार बंद कर फौरन सिटकिनी लगा दीजै

 

स्वाद भी जरूरी है अन्न हज़्म करने को

प्यार की चपाती में कुछ तो घी लगा दीजै

 

आग प्यार की बुझने लग गई हो गर ‘सज्जन’

फिर पुरानी यादों की धौंकनी लगा दीजै

--------

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

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Comment

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Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on September 29, 2016 at 1:10am

आदरणीय रवि शुक्ला जी व्यक्तिगत लेने जैसा कुछ भी नहीं है। जब कोई रचना जनगण के साथ साझा की जाती है तो हर एक को उस पर अपनी राय देने का अधिकार होता है और हर व्यक्ति की पसंद नापसंद अलग अलग होती है। अपनी बेबाक राय रखने के लिए आपका तह-ए-दिल से शुक्रिया

Comment by Ravi Shukla on September 19, 2016 at 10:13pm
आदरणीय धर्मेन्द्र जी इस ग़ज़ल के लिए भी बधाई स्वीकार करे आज तीन ग़ज़लें पढ़ी आपकी अपेक्षाकृत ये ग़ज़ल पसंदगी में निचले पायदान पर रही (ये हमारी व्यक्तिगत राय है कृपया अन्यथा नँलें )
Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on September 19, 2016 at 7:19pm

बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय राजेश कुमारी जी।आपके सुझावों से एक नया ही मिसरा सूझ गया

आँच प्यार की धीमी पड़ रही हो गर ‘सज्जन’

बहुत बहुत शुक्रिया


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on September 12, 2016 at 10:35pm

वाह्ह्ह वाह बहुत सुंदर ग़ज़ल कही  है आद० धर्मेन्द्र जी सभी अशआर अलग अंदाज लिए हुए हैं दिल से दाद कुबूलें 

आग प्यार की बुझने लग गई हो गर ‘सज्जन’---इस को इस तरह कह सकते हैं --

आग प्यार की बुझने जा रही  अगर  ‘सज्जन’ या  ..

आग प्यार की बुझने को  हुई  हो गर ‘सज्जन’

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on August 21, 2016 at 5:19pm

आदरणीय समर साहब, आप ठीक कह रहे हैं इसे भी दूर करना होगा

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on August 21, 2016 at 5:18pm

आदरणीय सौरभ जी, सही पकड़े हैं :)))


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on August 19, 2016 at 10:58am

//इसलिए मैं सबसे पहले रचनाएँ यहीं प्रकाशित करता हूँ। //

आदरणीय धर्मेन्द्रजी, यह बाइ च्वाइस न हो कर बाइ कम्पल्सन है. क्योंकि नियमतः कोई रचना कही ऑन-लाइन प्रकाशित हो जाने के बाद ओबीओ के पटल पर प्रस्तुत भी तो नहीं की जा सकती ! 

:-))

शुभ-शुभ

Comment by Samar kabeer on August 19, 2016 at 10:52am
आख़री शे'र का ऊला आपने बदल दिया,,लेकिन इसमें ऐब-ए-तनाफुर का दोष आगया है "लग गई"देखियेगा ।
Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on August 19, 2016 at 9:45am

आदरणीय गोपाल नारायण जी, सौरभ जी एवं गिरिराज भंडारी जी ग़ज़ल पर आपकी बेबाक राय के लिए मैं तह-ए-दिल से आपका शुक्रगुज़ार हूँ। इस मंच पर मुझे विश्वास रहता है कि बिना किसी लाग लपेट के त्रुटियों की तरफ ध्यान दिलाया जाएगा इसलिए मैं सबसे पहले रचनाएँ यहीं प्रकाशित करता हूँ। ग़ज़ल में उचित संशोधन कर रहा हूँ।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on August 19, 2016 at 8:38am

आदरणीय धर्मेन्द्र भाई , अच्छी ग़ज़ल कही है , सभी अशआर बहुत अच्छे हुये हैं । दिल से बधाइयाँ आपको । आदरणीय सौरभ भाई जी की बातों से मै भी सहमत हूँ - कर के  और शिकश्ते नारवा के संदर्भ में ।

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