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सोच करनी ही थी मंदार कभी-ग़ज़ल , पंकज

2122 1122 112

तू मेरा कब था अलमदार कभी
आँख कब तेरी थी नमदार कभी

शुक्रिया ज़ख्म नवाज़ी के लिए
और क्या माँगे कलमकार कभी

जिसे ख़ाहिश नशा ताउम्र रहे
उसे भाये न चिलमदार कभी

सोच कर एक शज़र ग़म में हुआ
जिस्म खुद का भी था दमदार कभी

मैं समंदर के ही मंथन को चला
सोच करनी ही थी मंदार कभी

मौलिक-अप्रकाशित

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Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on September 15, 2016 at 8:15pm
आदरणीय सुनील सर सआदर आभार
Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on September 15, 2016 at 8:14pm
आदरणीय सुरेश सर सआदर आभार
Comment by सुरेश कुमार 'कल्याण' on September 14, 2016 at 7:28pm
आदरणीय श्री पंकज कुमार मिश्रा जी सुन्दर गजल रचना के लिए हार्दिक बधाई प्रेषित है । सादर ।
Comment by सुनील प्रसाद(शाहाबादी) on September 14, 2016 at 10:24am
दिली दाद इस खुशनुमा ग़ज़ल के लिए जनाब पंकज कुमार जी,ख्वाहिश" की वज्न मेरे जानकारी से 22 या 211 ही होना चाहिए!मै भी जानना चाहूँगा।
Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on September 14, 2016 at 12:46am
अवश्य
Comment by Samar kabeer on September 13, 2016 at 9:34pm
ख/1/वा/2/हिश/2
Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on September 13, 2016 at 7:26pm
जी अवश्य, लेकिन मैं तो इसका उच्चारण #ख्वा(2)+हिश(2) पढता हूँ।
Comment by Samar kabeer on September 13, 2016 at 5:51pm
जी,मात्रा वही नहीं रहेगी 122 होगी न ।
Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on September 13, 2016 at 3:33pm
आदरणीय बृजेश जी सादर आभार
Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on September 13, 2016 at 3:33pm
आदरणीय सुशील सरना सर सादर आभार

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