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ग़ज़ल नूर की : ये नहीं है कि हमें उन से मुहब्बत न रही,

२१२२, ११२२, ११२२, २२

ये नहीं है कि हमें उन से मुहब्बत न रही,
बस!! मुहब्बत में मुहब्बत भरी लज्ज़त न रही. 
.
रब्त टूटा था ज़माने से मेरा पहले-पहल,
रफ़्ता-रफ़्ता ये हुआ ख़ुद से भी निस्बत न रही.
.
ज़ह’न में कोई ख़याल और न दिल में हलचल,
ज़िन्दगी!! मुझ में तेरी कोई अलामत न रही.
.
उन से नज़रें जो मिलीं मुझ पे क़यामत टूटी,
वो क़यामत!! कि क़यामत भी क़यामत न रही.
.
याद गर कीजै मुझे, यूँ न मुसलसल कीजै, 
हिचकियां सहने की अब जिस्म को आदत न रही.

बस... बिला-वज़’ह उसे डांट दिया था मैंने,
“नूर” उस रोज़ इबादत भी इबादत न रही.
.
मौलिक / अप्रकाशित 
निलेश "नूर"

Views: 745

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Comment by Nilesh Shevgaonkar on February 21, 2017 at 8:14pm
सभी को बहुत बहुत धन्यवाद ....
आ. समर सर.. आपने बहुत ज़रूरी बात समझाई है..
लाख लाख धन्यवाद
Comment by Samar kabeer on February 21, 2017 at 7:36pm
जनाब नीलेश'नूर'साहिब आदाब,उम्दा ग़ज़ल हुई है,दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ ।
'रब्त टूटे थे ज़माने से मेरे पहले पहल'
इस मिसरे में 'रब्त'चूँकि एक वचन है,इसलिये इस मिसरे को यूँ कीजिये:-
"रब्त टुटा था ज़माने से मेरा पहले पहल"
Comment by Dr Ashutosh Mishra on February 21, 2017 at 6:40pm
आदरणीय नूर जी एक अरसे बाफ आपकी रचना के रसास्वादन का अवसर मिला बहुत उम्दा ग़ज़ल हुयी है रचना के लिए हार्दिक बधाई सादर
Comment by Mohammed Arif on February 21, 2017 at 5:26pm
आदरणीय नीलेश जी आदाब, शे'र दर शे'र दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल कीजिए ।
Comment by नाथ सोनांचली on February 21, 2017 at 4:36pm
आदरणीय नीलेश जी सादर अभिवादन। मतले से मकते तक एक खूबसूरत गजल मिली पढ़ने को, वाह वाह क्या खूब कही आपने। शैर दर शैर दाद और मुबारकबाद पेश करता हूँ।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on February 21, 2017 at 3:17pm

//रब्त टूटे थे ज़माने से मेरे पहले-पहल, 
रफ़्ता-रफ़्ता ये हुआ ख़ुद से भी निस्बत न रही.
.
ज़ह’न में कोई ख़याल और न दिल में हलचल,
ज़िन्दगी!! मुझ में तेरी कोई अलामत न रही.//.....वाह क्या कहने आ. निलेश भाई ये दो अशआर खासतौर पर पसंद आए

दाद ओ मुबारक़बाद कुबूल फरमाएँ

Comment by दिनेश कुमार on February 21, 2017 at 12:34pm

बहुत खूब आ. निलेश सर। बेहतरीन ग़ज़ल। वाह वाह।

हर शेर बहुत उम्दा हुआ है।

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