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ग़ज़ल....रूप लम्हों में बदलती ज़िन्दगी का क्या करूँ

2122 2122 2122 212
रूप लम्हों में बदलती ज़िन्दगी का क्या करूँ
हौसलों का क्या करूँ चीने जबीं का क्या करूँ

रंग लाती ही नहीं अश्कों दफ़न की कोशिशें
आँख में आती नज़र रंजो ग़मी का क्या करूँ

​​रो रही है रात गुमसुम चाँद तारे मौन है
आग अंतस में लगाये चाँदनी का क्या करूँ

ओढ़ चादर कोहरे की कपकपाते होंसले
हर कदम पे थरथराते आदमी का क्या करूँ

हों इरादे आसमां तो जुगनुओं से रोशनी
आप घर खुद ही जलाये रोशनी का क्या करूँ

गुनगुनायें गीत कैसे औ कहें कैसे ग़ज़ल
जो समझ आती नहीं तो शायरी का क्या करूँ

चीने जबीं-माथे की सलवट
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
बृजेश कुमार 'ब्रज'

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Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on May 16, 2017 at 4:38pm
आदरणीय अनुराग जी आपने उचित ही कहा है..मैं काफी समय से कोई अच्छी किताब की खोज में हूँ..लेकिन मिल नहीं रही..क्या आप बता सकते हैं देल्ही में मद्दाह साहब की किताब कहाँ मिल सकती है..सादर
Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on May 16, 2017 at 4:34pm
जी आदरणीय नीलेश जी कोशिश कर रहा हूँ..कुछ अच्छा कर सकूँ...सादर
Comment by Nilesh Shevgaonkar on May 16, 2017 at 8:45am

आ. बृजेश जी... 
अच्छी कोशिश हुई है..
समर सर के बताये अनुसार रचना में सुधार करने प्रयास करें..
सादर 

Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on May 15, 2017 at 8:57pm
रचना पटल पे हार्दिक अभिनन्दन है आदरणीय सतविंद्र जी..सादर
Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on May 15, 2017 at 8:56pm
आदरणीय समर सर हौसलाफजाई के लिए तहेदिल से शुक्रिया..मतले के सानी में कमी तो है गी और बीं में काफी अंतर है..दफ़्न का सही रूप बताने के लिए एक फिर शुक्रिया अदा करता हूँ..सुधार की कोशिश जारी है..सादर
Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on May 15, 2017 at 8:52pm
आदरणीय शर्मा जी रचना को ह्रदय से महसूस करने के लिए आपका हार्दिक अभिनन्दन वंदन..सादर
Comment by सतविन्द्र कुमार राणा on May 15, 2017 at 6:41pm
हार्दिक बधाई आदरणीयbrijesh ब्रज जी,इस उम्दाgjl ke लिए
Comment by Samar kabeer on May 15, 2017 at 6:26pm
जनाब बृजेश कुमार 'ब्रज'साहिब आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा हुआ है,दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ ।
मतले के सानी मिसरे में क़ाफ़िया दोष है देखियेगा ।
दूसरे शैर के ऊला में 'दफन'ग़लत है,सही शब्द है "दफ़्न" देखियेगा ।
Comment by बसंत कुमार शर्मा on May 15, 2017 at 10:40am

बहुत बढ़िया शेर , आदरणीय बृजेश कुमार 'ब्रज' जी 

रो रही है रात गुमसुम चाँद तारे मौन है
आग अंतस में लगाये चाँदनी का क्या करूँ

ओढ़ चादर कोहरे की कपकपाते होंसले
हर कदम पे थरथराते आदमी का क्या करूँ

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