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ग़ज़ल "एक दिन मिल जायेगा सब ख़ाक में"

*२१२२ २१२२ २१२*

हर जगह रहता है अपनी धाक में।
ख़ासियत देखी ये उस चालाक में।।

चीज कोई मुफ़्त में कैसे मिले।
लोग रहते आजकल इस ताक में।।

आदमी करता गुमाँ किस बात का।
एक दिन मिल जायेगा सब ख़ाक में।।

ख़ुद-ब-ख़ुद सम्मान मिलता आजकल।
आप हो जब कीमती पोशाक में।।

जब न मोबाइल किसी के पास था।
लोग लिखते हाल अपना डाक में।।

डर हमेशा उस ख़ुदा से ही लगे।
मैं नहीं रहता किसी की धाक में।।

बस यही ख्वाहिश रही "इंसान" की।
वो बिखर जाए वतन की ख़ाक में।।

मौलिक व अप्रकाशित

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Comment by surender insan on March 29, 2018 at 7:59am

आदरणीय समर कबीर साहब जी सादर नमन जी। जी बहुत बहुत शुक्रिया और आभार जी। डाक वाला मिसरा सही कर दिया है जी। सादर जी।

Comment by surender insan on March 29, 2018 at 7:56am

आदरणीय नवीन भाई जी बहुत बहुत शुक्रिया जी ।सादर नमन जी।

Comment by Samar kabeer on March 28, 2018 at 10:09pm

जनाब सुरेन्द्र इंसान जी आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,बधाई स्वीकार करें ।

5वें शैर में क़ाफ़िया रदीफ़ से मेल नहीं रखता 'डाक में', या "डाक से",ग़ौर करें ।

Comment by Naveen Mani Tripathi on March 28, 2018 at 9:18pm

 भाई इंसान साहब शेर दर शेर उम्दा ग़ज़ल हुई हार्दिक बधाई आपको ।

कृपया ध्यान दे...

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