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ग़ज़ल नूर की - आपने भी तो कहाँ ठीक से जाना मुझ को

आपने भी तो कहाँ ठीक से जाना मुझ को
खैर जो भी हो, मुहब्बत से निभाना मुझ को.
.
जीत कर मुझ से, मुझे जीत नहीं पाओगे
हार कर ख़ुद को है आसान हराना मुझ को.
.
मैं भी लुट जाने को तैयार मिलूँगा हर दम
शर्त इतनी है कि समझें वो ख़ज़ाना मुझ को.
.
आप मिलियेगा नए ढब से मुझे रोज़ अगर
मेरा वादा है न पाओगे पुराना मुझ को.
.
ओढ़ लेना मुझे सर्दी हो अगर रातों में
हो गुलाबी सी अगर ठण्ड, बिछाना मुझ को.
.
मुख़्तसर है ये तमन्ना कि अगर जाँ निकले
आप की गोद का मिल जाए सिरहाना मुझ को.
.
कर सराबोर मुझे मुझ में बरस कर ऐ ‘नूर’
अपनी बस्ती में कहीं दे दे ठिकाना मुझ को
.
निलेश "नूर"
मौलिक/ अप्रकाशित 

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Comment

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Comment by Nilesh Shevgaonkar on April 30, 2018 at 2:25pm

धन्यवाद आ. तसदीक़ अहमद साहब,
वर्णित शेर मुझे भी ढीला ही लग   रहा था .. इसे हटा ही देता हूँ मूल प्रति से 
सादर 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on April 30, 2018 at 2:24pm

शुक्रिया आ. श्याम जी 

Comment by Tasdiq Ahmed Khan on April 30, 2018 at 2:09pm

आ.जनाब नीलेश नूर साहिब ,बहुत ही उम्दा ग़ज़ल हुई है ,मुबारक बाद क़ुबूल फरमायें। शेर4 में मिसरों में ताल मेल की कमी लग रही है । उला मिसरा यूँ करके देखियेगा "आप मिलिए तो नए ढब से मुझे रोज़ाना "

शेर6 में क़ाफ़िया "सिरहाना" सही नही लग रहा है ,बह्र भी गड़बड़ा रही है ,देखियेगा । सादर

Comment by Shyam Narain Verma on April 30, 2018 at 1:24pm
इस लाजवाब, उम्दा ग़ज़ल के लिए बहुत बहुत बधाई 
Comment by Nilesh Shevgaonkar on April 30, 2018 at 11:22am

बहुत बहुत आभार भाई दिनेश कुमार जी 

Comment by दिनेश कुमार on April 30, 2018 at 10:47am

जीत कर मुझ से, मुझे जीत नहीं पाओगे
हार कर ख़ुद को है आसान हराना मुझ को.,,,,

उम्दा ग़ज़ल के लिए दिल से वाह वाह, आदरणीय निलेश सर। सभी शेर अच्छे लगे।

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