बनिक भए
रंगरेज मेरे
बिछुआ, पायल
बेहाल सखी
फन काढ़
समीरन लाल चले
अंतर धधके सौ ज्वालमुखी
गठ जोड़ नयन
स्वादे आहट
कनखी जी का
जंजाल सखी
इत राग महावर
झाईं पड़े
उत फागुन है उत्ताल सखी
मन के झूमर
चुप बैठ गए
चूते अमिया
दुरकाल सखी
भ्रू-चाप चुने
महुआ नागर
मुसकै भदवा बैताल सखी
रस रस गलती
चलती चरखी
हर आस भई
पातालमुखी
अरदास खड़े
बिंदी, अंजन
दै कंगना भी सुर-ताल सखी
(पूर्णत: मौलिक एवं अप्रकाशित)
Comment
बहुत बढ़िया आदरणीय राजेश जी-
आभार
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