आंखों देखी – 13 पुराने दिन नयी बातें
रूसी आतिथ्य के शानदार अनुभव (देखिये आंखों देखी – 12) के बाद नोवो स्टेशन जाने का आकर्षण स्वत: कम हो गया था. हम लोगों ने शिर्माकर ओएसिस के खूबसूरत झील ‘प्रियदर्शिनी’ के किनारे स्थित भारतीय शिविर को साफ़ किया. डेढ़ दो महीने बाद अगले अभियान दल को पहुँचना था अत: यह सुनिश्चित करना कि नए दल के सदस्यों को “मैत्री” पहुँचकर कोई असुविधा न हो हमारा नैतिक दायित्व था. शिर्माकर में हम लोग 12 दिन रहे जिस दौरान हिमनदीय, भूवैज्ञानिक और जीवविज्ञान सम्बंधी अध्ययन किए गए. उत्साह से भरपूर हमारे इस छोटे से दल ने शिर्माकर ओएसिस के दक्षिण में फैले हुए पोलर आईस पर चढ़कर वॉल्थट पर्वत तक जाने का सपना देखा था. कोशिश भी की गयी लेकिन हमारी पिस्टन बुली गाड़ी काँच जैसे सख़्त बर्फ़ की सतह पर चलने से कतराने लगी. बार-बार उसके फिसलते रहने के कारण किसी संभाव्य गम्भीर दुर्घटना की शंका होते ही हमने ऐसी कोशिश सही उपकरण और सही समय आने तक मुलतवी रखना ही उचित समझा.
12 नवम्बर 1986 की देर शाम हम शिर्माकर ओएसिस के पूर्वी छोर से इस इरादे के साथ चले कि कुछ दूर जाकर हम रास्ते में ही रुककर रात बिताएँगे और फिर सुबह यात्रा जारी रखते हुए अगले दिन दक्षिण गंगोत्री पहुँचेंगे. इस प्रकार से हम लोग एक ऐसे स्थान में रात बिताने का आनंद लेना चाहते थे जिसके चारों ओर दूर-दूर तक केवल बर्फ़ का साम्राज्य हो और हम कतिपय अभियात्री एक गाड़ी और एक स्लेज के ऊपर लगाए गए केबिन के भीतर आबद्ध हों. दक्षिण गंगोत्री के अंदर रहकर हमने बहुत कुछ अनुभव किया था. बाहर 58 घंटे तूफान में फँसकर हमारे कुछ साथियों ने क्या-क्या नहीं सहा लेकिन अच्छे मौसम में खुले आकाश के नीचे शून्य से 30 डिग्री सेल्सियस से भी नीचे के तापमान में रात व्यतीत करना एक अलग ही बात होती. उत्तर दिशा से सूर्योदय होते देखना, पैर के नीचे बर्फ़ की मोटी पर्त के पार लहराते समुद्र की अवस्थिति का ज्ञान, किसी भी समय एक पेंग्विन के दिख जाने की संभावना अथवा रात के आकाश में ऑरोरा ऑस्ट्रैलिस के लहराते प्रकाश को देखने का रोमांच – हमारी ऐसी इच्छा के पक्ष में विशेष कारण रहे. लेकिन दुर्भाग्य ! शिर्माकर से वापसी यात्रा शुरु करने के कुछ देर बाद ही हमें बताया गया कि मौसम के शीघ्र ख़राब होने के संकेत हैं. मात्र 8-10 घंटे का समय दिया गया जिसके बाद बर्फ़ीले तूफ़ान से पूरा क्षेत्र ग्रसित हो जाने की चेतावनी भी दी गयी. उत्तर की ओर दूर काले बादलों का हुजूम भी दिखने लगा. गाड़ी की गति तेज़ कर दी गयी और बिना कहीं रुके 13 नवम्बर की सुबह लगभग साढ़े चार बजे हम अपने स्टेशन पहुँच गए. पता चला हमारे साथियों ने हमें स्वागत करने के लिए बहुत तैयारियाँ की थी लेकिन हमारे अचानक पहुँच जाने से उनके मनसूबों पर पानी फिर गया था.
हमारे स्टेशन में वापसी के साथ ही नए अभियान दल के स्वागत की तैयारी होने लगी. छठा भारतीय अभियान दल गोआ के मॉर्मुगाओ बंदरगाह से दो सप्ताह बाद चलने वाला था और दिसम्बर के तीसरे सप्ताह तक उसके अंटार्कटिका पहुँचने की सम्भावना थी. हमें अगले अभियान की तैयारी में बहुत सारे काम करने थे. इनमें प्रमुख था सभी गाड़ियों को गैराज से निकालकर उनकी सर्विसिंग करके उपयोग में लाने योग्य बनाना. इसके अतिरिक्त ग्रीष्मकालीन दल के सदस्यों के रहने हेतु कुछ छोटे कंटेनर में समुचित सुविधा की व्यवस्था करना भी हमारा दायित्व था.
26 नवम्बर 1986 के दिन भारत का 6ठा अभियान दल गोआ से रवाना हुआ. यह हमारे लिए विशेष उत्साहवर्धक समाचार था. दल के साथ हमारे लिए हरी सब्ज़ी, ताजे फल के अतिरिक्त हमारे घर के सदस्यों और मित्रों द्वारा भेजे गए पत्र और आवश्यक कपड़े जैसे बनियान, कमीज़ आदि भी आ रहे थे. जब हम लगातार सभ्य समाज में ऐसे माहौल में रहते हैं जहाँ हमारी रोज़मर्रा की ज़रूरतें बड़ी आसानी से पूरी हो सकती हैं, इन साधारण सी दिखती चीज़ों का महत्व हमारे समझ में नहीं आता है. एक साल तक इन वस्तुओं और सुविधाओं से पूरी तरह विच्छिन्न रहने के बाद हम तरस रहे थे प्रियजनों के हस्तलिखित पत्र पढ़ने के लिए, पत्रिकाएँ और समाचार पत्रों को जी भरकर देखने के लिए. हरी सब्ज़ी खाने को जीभ और पेट अस्थिर हो उठे थे. पूरे साल में देश और दुनिया में क्या घटनाएँ घट गयीं इसके बारे में हमें विशेष ज्ञान नहीं था. कभी-कभी बड़ी खबरों को संक्षेप में टेलेक्स द्वारा भेज दिया जाता था दिल्ली से. हम भी अंटार्कटिका के जादू से इतना मुग्ध हो गए थे कि किसी ‘दूर पृथ्वी’ में कौन कहाँ क्या कर रहा है, इस बारे में सोचते भी नहीं थे. घर-परिवार से किसी भी अप्रिय घटना का समाचार हमें नहीं दिया जाता था क्योंकि किसी भी परिस्थिति में सामाजिक या पारिवारिक दायित्व निभाने के लिए वहाँ से घर आना सम्भव ही नहीं था. इस प्रकार के समाचार से केवल मानसिक तनाव ही बढ़ता जो अभियान के उद्देश्यपूर्ति में निश्चित रूप से बाधक सिद्ध होता. आज के अभियात्री और इस लेख के युवा पाठक इन बातों को कितनी गहराई से महसूस कर पाएँगे मैं नहीं जानता !
उन दिनों ग्रीष्मकालीन अभियात्री को महीने में 3 मिनट और शीतकालीन अभियात्री को 6 मिनट समय मिलता था सैटेलाईट फ़ोन की सहायता से घर वालों से बात करने के लिए. अधिकांश समय ‘हैलो हैलो’ करने में ही बीत जाता था. दोनों ओर से एकसाथ बात करने से सम्पर्क टूट जाता था, इसलिए हर वाक्य के बाद ‘ओवर’ कहा जाता था जिससे दूसरी ओर से जवाब मिल सके. संचार व्यवस्था में युगांतकारी परिवर्तन आने के साथ ही आज अंटार्कटिका में हमारे वैज्ञानिक शोध केंद्र इंटरनेट द्वारा पूरे विश्व के साथ हर पल सम्पर्क में हैं. हर अभियात्री अपनी इच्छानुसार रोज़ अपने परिवार और अन्य प्रियजनों के साथ बात तो करता ही है, उन्हें ‘स्काईप’ के सहारे देख भी रहा है. वैज्ञानिक और तकनीकी क्षेत्र में इस विशाल परिवर्तन से मनुष्य जीवन एक ऐसे स्तर पर पहुँच गया है कि हम अपनी सफलता के चकाचौंध में कुछ मूलभूत बातों से विमुख हो गए हैं. उदाहरण के तौर पर आज परिवार में घटने वाले हर छोटी-बड़ी अप्रिय घटना की खबर अंटार्कटिका में बैठे अभियात्री को मिलती रहती है. उसका मानव मन अशांत हो उठता है लेकिन अभियान के नियम, अंटार्कटिका की मजबूरियाँ अभी भी वैसी ही हैं. फलत: मानसिक तनाव बढ़ रहा है जिसका अभियान की सफलता पर पड़ने वाला सीधा असर प्राय: देखने को मिलता है. आज मैं देखता हूँ बहुत से सदस्य अभियान में जाने से पहले ही अभियान के दौरान कितना भत्ता मिलेगा, अन्य क्या सुविधाएँ मिलेंगी आदि प्रश्न पूछने लगते हैं. अर्थात पैसा ही मुख्य हो गया है उनके लिये – पृथ्वी के इस अद्भुत स्थान पर जाने का अवसर मिल रहा है – इतना बड़ा सौभाग्य मानों कुछ भी नहीं ! क्या वे अभियान के उद्देश्य पूर्ति में अपना पूरा नि:स्वार्थ सहयोग दे सकते हैं – विचारणीय तर्क का विषय है जिसे हम अनदेखा करते जा रहे हैं.
सूचनार्थ बताना चाहूंगा मैं जिस समय का संस्मरण सुना रहा हूँ उस समय हमारे भत्ते इस प्रकार थे :
गोआ से 40 डिग्री दक्षिण अक्षांश तक मात्र रु.12/= प्रति दिन
उसके बाद अंटार्कटिका से जहाज के वापस चलने तक रु.50/= प्रति दिन
शीतकालीन दल के सदस्यों को नए अभियान दल के आने तक रु.75/= प्रति दिन
हमने कभी इन्हें जोड़कर नहीं देखा कि क्या मिला क्या नहीं. जो अनुभव हुए उसके आगे भत्ता मूल्यहीन था. रूसी हमसे पूछते थे कि भारत सरकार हमें कितना देती है प्रति दिन. हम कहते थे 75/= वे समझते थे $75. जब उन्हें पता चलता कि 75/= का अर्थ रु.75/= अर्थात $5 (उस समय एक डॉलर 16 रुपये था) तो वे आश्चर्यचकित हो जाते थे. आज शीतकालीन दल के सदस्यों को लगभग एक हज़ार रुपये प्रतिदिन मिलता है लेकिन फिर भी कुछ लोग इस भत्ते में वहाँ काम करना अपनी ‘योग्यता’ की तौहीन समझते हैं.
मैं शायद भावावेग में कुछ ऐसा कह गया जिस पर तूफ़ान खड़ा हो सकता है, लेकिन जो देखा हूँ, अनुभव किया हूँ और जो आज देख रहा हूँ उससे मुँह तो नहीं मोड़ सकता.
26 नवम्बर को जहाज एम.वी. थुलीलैण्ड छ्ठे अभियान दल को लेकर गोआ से चला था. 5 दिसम्बर 1986 के दिन हमारा उनसे पहला रेडियो सम्पर्क हुआ. उसी दिन हमने एक दु:साहसिक काम किया जिसके बारे में संस्मरण की अगली कड़ी में बातें करूंगा. आज इतना ही.
(मौलिक तथा अप्रकाशित रचना)
Comment
कितना और कबतक ? इस प्रश्न में मात्रा और गुणवत्ता दोनों का समावेश है. कोई काम अक्सर इनके दायरे में ही होता है. ध्यातव्य है, मैं ’अक्सर’ की बात कर रहा हूँ. इस ’अक्सर’ के अलावे कर गुजरने वालों के उत्साह में मैक्रो लेवेल पर राष्ट्र और उसकी अस्मिता होती है, तो मानव इकाई माइक्रो लेवेल पर होती है.
आदरणीय शरदिन्दुजी, आप इसी दूसरी कैटेगरी से आते हैं.
आप सम्बद्ध भत्ताओं की बात कर मेरे कहे को ही और पुष्ट करे रहे हैं. अदम्य उत्साह और उसके अनुरूप कुछ कर गुजरना भत्ताओं से नहीं साधा जा सकता. जबकि आज के युवाओं में बहुसंख्यक की विचारधारा ’रघुपति राघव राजाराम, जितना पैसा उतना काम’ की हो चुकी है. यानि, एक बड़ा वर्ग सुविधाभोगी हो गया है. जुझारूपन के साथ देश के मान तथा प्रतिष्ठा के लिए बिना अपनी परवाह किये भिड़ जाने वाला आदमी अब दोयम दर्ज़े का माना जाने लगा है. या, ऐसे उत्साहियों को यह सुविधाभोगी वर्ग थोड़ा खिसका हुआ मानता है. इसके क्या कारण हैं, वो आप समझ सकते हैं. इसकी चर्चा इस लेख की प्रतिक्रिया के दायरे के बाहर की बात होगी.
इस शृंखला की यह कड़ी कई तथ्यों का खुलासा करती हुई आयी है, आदरणीय. आपका अंटार्टिका प्रवास ’ग्लोबलाइजेशन इरा’ के पूर्व का है. इन अर्थों में, आदरणीय, उस इरा के बाद से जाने कितने बड़े-बड़े ग्लेशियर समुद्र में समा चुके हैं.
इस शृंखला के लिए हृदय से बधाई.
सादर
आदरणीय शरदिन्दु जी,
संस्मरण में चलते चलते वास्तविकता का धरातल झटके देता है. उस समय की परिस्थितियों और तात्कलिक कठिनाइयों को इन्गित करते हुये अपने काम के प्रति समर्पण की जो चर्चा की है उस मन नत् हो जाता है. संसार से कट कर लगभग एक महीने का समय हमने कन्याकुमारी में निकाला है. हम इस तरह के वातावरण की कल्पना कर सकते हैं.
आज की टेक्नोलोजी के विकास के साथ- साथ युवाओं का सम्मान के साथ मूल खोज या बेसिक एक्सपेरिमेण्ट पर ध्यान नहीं दे रहा है....
सादर.
इस तेरहवें अंक में आपने कुछ ऐसे सवालों के बीच ला कर खड़ा कर दिया है जो अपना चोला बदल कर रोज ही हमसे टकराता है और हम बेशर्म हो कर देख कर भी अनजान बनने का नाटक करते रहते हैं .....
इस बार भी बेशर्म बनने के अतिरिक्त कोई और विकल्प नहीं है ...
आदरणीय शरदिंदु जी, आपके ये संस्मरण एक अनोखी दुनिया की सैर कराते हैं जो हम लोगों के दुर्लभ हैं. आपका बहुत आभार कि आप इन्हें लगातार हम लोगों के साथ साझा कर रहे हैं,
सादर!
केवल जी, आपका हार्दिक आभार.
आ0 शरदिन्दु सर जी, आपने एक बात बिलकुल दुरूस्त कही कि ''हमने कभी इन्हें जोड़कर नहीं देखा कि क्या मिला क्या नहीं, जो अनुभव हुए उसके आगे भत्ता मूल्यहीन था।'' प्रकृति प्रेम भी राष्ट्र प्रेम सरीखा ही होता है। जिससे आतिमक शांति तथा देवताओं की सी अनुभूति होती है। क्या बात है....। यह अप्रतिम लेख संग्रहणीय है। आपके राष्ट्र प्रेम के लिए आपको कोटि नमन! हार्दिक बधार्इ स्वीकारें। सादर,
आवश्यक सूचना:-
1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे
2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |
3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |
4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)
5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |
© 2024 Created by Admin. Powered by
महत्वपूर्ण लिंक्स :- ग़ज़ल की कक्षा ग़ज़ल की बातें ग़ज़ल से सम्बंधित शब्द और उनके अर्थ रदीफ़ काफ़िया बहर परिचय और मात्रा गणना बहर के भेद व तकतीअ
ओपन बुक्स ऑनलाइन डाट कॉम साहित्यकारों व पाठकों का एक साझा मंच है, इस मंच पर प्रकाशित सभी लेख, रचनाएँ और विचार उनकी निजी सम्पत्ति हैं जिससे सहमत होना ओबीओ प्रबन्धन के लिये आवश्यक नहीं है | लेखक या प्रबन्धन की अनुमति के बिना ओबीओ पर प्रकाशित सामग्रियों का किसी भी रूप में प्रयोग करना वर्जित है |
You need to be a member of Open Books Online to add comments!
Join Open Books Online