अपनी सास और जेठ-जिठानी से पिंड छुड़ाने के बाद, खुद को नये ज़माने की कहने वाली मात्र बारहवीं पास छोटी बहू काजल अब काफी संतुष्ट थी। बेटे को दूध पिलाने के लिए पति को राजी कर एक बकरी भी अब उसने पाल ली थी। गांव की एक लड़की से हर रोज़ की तरह घर की साफ-सफाई और लीपा-पोती करवाने के बाद आज काजल भोजन पकाने की तैयारी कर ही रही थी कि पति की ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाने की आवाज़ सुनाई दी। आज फिर पड़ोसी से झगड़ा हो गया था। बेटे को वहीं रसोई में छोड़ फुर्ती से वह बाहर की ओर भागी। जैसे-तैसे झगड़ा शांत कराकर जब वापस रसोई में लौटी तो नज़ारा देखकर चौंक गयी। सफाई पसंद उसकी बकरी रसोई में ही अपने मेमने को दूध पिला रही थी, और गोबर-मिट्टी से हाथ सान कर बेटा औंधा सा लेटकर स्तनपान करते मेमने को बड़े कौतूहल से निहार रहा था। यह दृश्य उसे पुनः कुछ सोचने को विवश कर रहा था कि तभी पड़ोसन घर में घुसते हुये बोली- " क्यों री काजल, आज फिर तूने मेरे आदमी को उल्टा-सीधा कहा ! "
"हम नहीं लड़ाते जुबान गंवारों से, तेरा पति ही उनसे उलझ रहा था।"
"देख काजल, मैं बांझ हूँ तो क्या, तेरी हिम्मत कैसे हुई उन्हें निकम्मा- गंवार और ऐसा-वैसा बोलने की ? अपनी जुबान पर लगाम लगा ! अरे, पढ़ी-लिखी कहती है अपने को, लड़-झगड़ के, अनपढ़-गंवार के ताने मार-मार के सब को तो भगा दिया घर से ! किस की मीत हुई तू ? तू तो अपनी सन्तान तक की मीत नहीं, जो जानबूझकर अपना दूध ही नहीं पिलाती उसे ! अरी, तू ही है असल अनपढ़-गंवार !!!"
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
आदरणीय उस्मानी जी बढ़िया लघुकथा हुई है. इस प्रस्तुति पर हार्दिक बधाई. सादर
अनपढ़ गवाँर कौन सही मायने में , एक सार्थक प्रश्न को साकार करती लघुकथा में बेहतर प्रयास हुआ है आपका। बधाई।
बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति आदरणीय |
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