हौसलों का पंछी -2(गतांक से आगे )
उनके बैठने के बाद मैं फिर पूछता हूँ-सारी कहानी क्या है ?और बस प्रकाश के नाम से ?
“उस समय काम अच्छा चल रहा था |उसे नासिक पढ़ने के लिए भेज दिए |सोचा कुछ बन जाएगा |पर- - - -वो साला चार साल तक पढ़ाई के नाम पर ऐययासी करता रहा |फिर सुधारने के लिए शादी कर दी |पर साला कुत्ता का पोंछ | सब चौपट करता गया |हम खून जला-जलाकर जोड़ते रहे वो दारू और रंडीबाजी में उड़ाता रहा | ”
“इसका मतलब आप ने अन्धविश्वास किया ?”
“बड़ा था मैं तो अपना फर्ज़ समझकर निभाता रहा |उसकी आवारगी को नादानी समझकर माफ़ करता रहा |उसी का सिला है |”
“और बसों का क्या चक्कर है ?सुना है कभी आपकी चार-चार बसे चलती थीं |भाभी कहती थीं कि आप गाँव के बच्चे-बच्चियों से किराया भी नहीं लेते थे |”
“लम्बी कहानी है |बहुत ऊँच-नीच देखा है जीवन में - - -“
एक सूर(अंधे) ग्राहक के आने से व्यवधान पड़ता है |उसे छोटा पेप्सी देकर सिर्फ 10 रुपया लेते हैं |उसके जाने का बाद मेरी तरफ मुस्कुराते हुए देखते हैं और बोलते हैं-‘ सूरदास बाबा से ठंडा करने का क्या पैसा लेना ?पता नहीं इस गर्मी में अकेले कहाँ निकले हैं |कैसा भी अंध-पन हो आदमी असहाय हो जाता है |’
“बाबा आपकी शिक्षा-दीक्षा ?”
“पढ़े हैं-हाईस्कूल तक किसी तरह |”
“क्या पढ़ने का मन नहीं था या कोई और बात थी ?”
“पईसा नहीं था |बहुत गरीबी का ज़माना था |परिवार भी बड़ा था |सो जब पिताजी कहे कि बच्चा अब नहीं पढ़ा सकेंगे तो हमने भी जिद्द नहीं किया |खेती-किसानी से कहाँ इतना पैसा होता था |”
“खेत-वेत कम थे क्या ?या चाचा-ताऊ लोग ज़्यादा थे ?”
“खेत तो बहुत रहा पर पानी का साधन नहीं था |रस्सा-बरहा-पलटा का समय था |सारा कुछ दउ(बादल )पर निर्भर | - - - - - - -चाचा दो थे |दोनों बाहर कमाते थे |कुछ समय तक वो लोग साथ दिए पर परिवार हो जाने पर मतलब रखना छोड़ दिए- - - -सोचें कि इन लोगों का बोझा भी उठाना पड़ेगा | - - -- -शुरु से ऐसा ही चला आ रहा है |ये साला भी तो ऐसा ही किया |”
“तो क्या उस समय गाँव वाली नहर नहीं थी ?”
“हमारे बचपना में तो नहीं थी |ये तो बीस साल पहले ही आई है |”
“क्या ऐसा ख्याल दिल में आया कि पढ़े होते तो ज़िन्दगी ज़्यादा अच्छी होती ?”
“जो नहीं मिला उसका का रोना रोया जाए |पढ़ लिए होते तो बड़ा अफसर/मनेजर तो हो ही जाते - - - - - - अब भी जो लड़का लोग एम.बी.ए. करता है वो हमसे सलाह लेने आता है –‘बाबू साहब इ काम कैसे किया जाए |’ बारा-तेरा मनेजरों के साथ रहने का मौक़ा मिला |एक श्रीवास्तव नाम का बुजरुग मनेजर आया था –वो बहुत कुछ सिखाया |वही सारा ज्ञान था कि इतना आगे बढ़े,पर - - - - सब कुछ इस माथे पर लिखा होता है |”
“बनारस कौन लाया ?”
“यहाँ एक चाचा थे |यहीं कचहरी में उनका मकान था |बैंक मनेजर थे |हाईस्कूल करके,घर से 10 रुपया लिए और चाचा के पास आ गए |चाचा ने ही ‘आज’ प्रैस में काम दिला दिया |प्रेस की गाड़ी से अख़बार लाकर यहाँ स्टेशन पर वेंडर को सौपना था और अलग-अलग गाड़ियों से दूसरे स्टेशन भेजना होता था |7 तारीख को पहली तनखाह 36 रुपया मिला तो तुरंत 25 रुपया घर भेज दिए और उसके बाद नौकरी छोड़ दिए |” इतना कहकर वो चुप्प हो जाते हैं |
“नौकरी क्यों छोड़ी ?”
“7 तारीख को जब कचहरी(चाचा-निवास ) पहुँचे तो चाची पूछी-तनखा मिली होगी ना ! लाओ दो |”
हमने चाची को मनीआर्डर की पर्ची थमा दी और बाकि पैसा उनकी तरफ बढ़ाया |उन्होंने झल्ला के पैसा फैंक दिया और ऊँचा-नीचा बोलने लगीं |
चाचा आए तो चाची ने उनसे कहाँ-‘देखला,अबहि से पाख(पंख) जाम गया | फुटानी खेलने लगा है |
हम जवाब दिए कि घर पर अनाज का अभाव है और कोई जुआ-दारू में तो नहीं उड़ाए !!
चाचा कुछ नहीं बोले |चाची किसी तरह चुप्प नही हुई |3 घंटे से अधिक समय हो गया पर चाय-पानी भी नहीं पूछिं |चाचा टहलने के लिए बाहर चले गए तो हमने भी पैसा-वैसा वहीं छोड़ा और यहाँ कैंट पेट्रोलपम्प आ गए और उसकी रेलिंग पर आकर सो गए |
जब यहाँ पहुँचे तो आठ(रात के) से ऊपर समय हो गया था |सोने को तो आकर सो गए पर दिन भर की थकान और खाली पेट-‘नीद आवे त आवे कहाँ से - - - - - इसी पंप पर गाजीपुर का एक चौकीदार था राधामोहन यादव |चौकीदार क्या था –तेल बेचता था |हमे करवट बदलते देखकर पूछा कि घर से भाग कर आए हो क्या |फिर पूछा कौन जात हो |बताए कि –ठाकुर हैं |फिर अपना “पूरा नाम बताकर पूछा कि खाना खाओगे और हम उसके साथ चल दिए |पहली बार महसूस हुआ कि भूख सबसे बड़ी जात है और अजनबी लोग अपनों से ज़्यादा अच्छे| “-ऐसा कहते समय उनकी आवाज़ में एक ठंडक और आँखों में कृतज्ञता का भाव स्पष्ट गोचर था |
“तो आप उनके पास कितने दिन रहे ?”
साथ तो कई दिन रहा पर काम पर अगले ही दिन से लग गया |भोजन के दौरान मैंने उन्हें सारी आपबीती सुनाई और कहा-’20 रुपया उधार दे देता त हम अख़बार क धंधा शुरु कर देतिं |’- - - --उ झट से उहे टाइम पैसा दे दिए और अगली सुबह हम प्रेस वालों से अख़बार लिए और बेचा |धंधा चल गया |फिर बाद में लकड़ी की पटरी पर मैगजीन-उपन्यास-अख़बार सजा-सजा कर रोडवेज और कैंट पर बेचने लगे |पर यहाँ भी साला बड़ा झंझट था |
“कैसा झंझट ?”
“रोडवेज में पत्र-पत्रिका का मऊ का एक ठेकेदार था |उ रोडवेज़ पर सामन बेचने ही नहीं दे |भगाने लगे |फिर एक दिन कहा कि अगर यहाँ माल बेचना है तो अपने साथ मेरी किताब भी बेचो और फ़ायदा में 40 % भी कमाओ |पानी में रहकर मगर से क्या बैर करते |’हाँ’ कह दिए |हँ-हँ हँ हआँ “ जोर से हँसने लगते हैं|
फिर आगे कहते हैं-मगर को लोमड़ी ही छकाती है |हमने भी क्या किया कि उसका माल भी बेचने लगे |पर उसका जो भी किताब बिकता |शाम को मैगजीन हाउस से सस्ता में वही किताब खरीद लाते और कहते कि माल नहीं बिक रहा | कुछ दिन तक ऐसा चलता रहा |एक रोज़ साला पकड़ लिया |उसने मैगजीन पर चुपचाप चिह्ना लगा दिया था |चोरी पकड़ी गई |उसने सारा सामान रख लिया और वो काम उसी रोज़ बंद |”
तभी कोलड्रिंक का सप्लायर्स आ जाता है और वे उससे बात करने लगते हैं |फिर थोड़ी देर बाद बैठते हैं और जलजीरा वाले को इशारे से जलजीरा लाने को कहते हैं |जलजीरा बढ़ाकर बात आगे बढ़ती है |
“फिर यादवजी ने मुझे पम्प पर 30 रुपया महिनआ पर गाड़ी धोने का काम दिला दिया |फिर कुछ पैसा जुटा तो हमने कोयले का धंधा किया |कोयले में घाटा हुआ तो कभी अरारोट,तो कभी चीनी,कभी गाड़ियों में पंखे लगाने का काम किए |फिर जब यादव जी रिटायर होने लगे तो उन्होंने मुझे अपनी जगह चौकीदारी दिला दी और तब से मैं यहीं हूँ |”
“तो क्या कोलड्रिंक एक साईड बिजनेस है ?बसे कैसे खरीदीं ?क्या जमीन बेचीं या कोई और जुगत लगाई |”
एक मुस्लिम परिवार आकर 2 लीटर मिरिंडा लेता है और पैसे को लेकर थोड़ा ऐतराज़ करता है पर बाद में मान जाता है |वो दोबारा बैठते हैं |
“कोलड्रिंक का काम तो अब दो साल से किए हैं |जमीन-वमीन भी नहीं बेचे उल्टा कमाई से 14 बीघे जमीन और बनाएँ हैं |नौकरी लगा उसके साल भर बाद ही पम्प घाटे के कारण बंद हो गया |कुछ समय तक तो कम्पनी बिठा कर पैसा दी फिर सिकन्दराबाद जाने का आर्डर थमा दिए |- - - - - - - - हमारा माथा ठनका कि साला अगर बाहर चले गए तो ना ढंग से काम कर सकेंगे ना घर-बार देख पाएँगे |सबसे बड़े थे तो सारा जिम्मेवारी हम पर था |हमने भी उठाकर केस डाल दिया-‘चतुर्थ कर्मचारी होने की वजह से हमें नाहक परेशान किया जा रहा है और राज्य से बाहर हमारा तबादला अवैध है |’ये सितम्बर 95 की बात है |”
“तो फैसला क्या आया ?”
“फैसला तो दो साल पहले आया है |हमारे ही हक़ में |पर इतने दिन जीना-खाना भी तो था |केस डालने से तनखा भी रुक गई थी बरहाल हमने 15 रुपया पर सोमो(टाटा का टेम्पो ) लोड करना शुरु किया |शुरु में दो-तीन गाड़ी मिली |पर धीरे-धीरे 85 गाड़ी तक हो गई |अपने व्यवहार से हमने बनारस से इलाहबाद तक सारा थाना-पुलिस बांधा और सबका धंधा बहुत अच्छे से चलने लगा |इससे जो कमाई हुआ उससे अपनी सोमो निकलवाई और हमारी गाड़ी भी चलने लगी |हमी को सब देखना था इसलिए पहला नम्बर हमारा था |हमारी गाड़ी पुरे दिन में दो चक्कर लगाती थी और सस्ता के जुग में भी 1300-1500 रोज़ देती थी|पर बाद में हमने ये काम छोड़ दिया और टाटा-407 निकलवाई और आजमगढ़-बनारस रोड पर चलवाने लगे |”
“पर अचानक से चलता हुआ काम छोड़ने की वजह ?”
“जब कोई आदमी मेहनत से कुछ बना लेता है तो बाकि लोग भी उसकी बराबरी करना चाहते हैं और वो भी बिना हींग-फिटकरी लगाए |बनारस में राय नाम से एक कलेक्टर आया-‘उसने अपने रिश्तेदार को इस काम में घुसा दिया |जब हम देखें कि यहाँ तो झंझट है तो हमने हटना ही ठीक समझा |- - - - - - - -पका-पकाया खाना सबको अच्छा लगता है पर पकाए को लंबे समय तक बचाना कोई खेला नहीं है |अब राय के कारण केवल तीन-चार गाड़ी ही चल रहीं हैं |”
“सुना है कि आपकी बसें भी चार हो गई थीं |फिर अचानक से सब कुछ कैसे ?”
“सब उसी शरबिया के कारन |पहले एक बस बेचा |फिर दुसरा |वो तो जब तीसरा बस बेचने लगा तो सब मालूम हुआ | - - - - - - -पहले मालूम हो गया होता तो इतना नौबत ही नहीं आता |साल भर पहले ईशारा तो दिया था पर समझ ही नहीं पाए वरना तभी कहते –‘ले साला निकल बस तेरे नाम है तो - - - - -इतना कुछ तो नहीं बर्बाद करता |”
“इस सबकी शुरुवात कब हुई ?”
“सन 86 की बात है |ये सबसे छोटा वाला शरबिया शक्तिनगर(यू.पी.)में रहता था |नौकरी-धंधा करके कुछ पैसा जुटा लिए थे |बोला कि ट्रैक्टर चलाएँगे |हमने 15 हज़ार नकद और बाकी क़िस्त पर ट्रैक्टर ले लिया और कुछ भट्टों से कांट्रेक्ट दिला दिया |पर साला 4 ही साल में ट्रैक्टर भथुरा कर दिया |बनारस में मँगा कर ट्रैक्टर ठीक करवाए और राशन-निगम में ट्रैक्टर लगवा दिया |आठ-दस हज़ार कमाई होने लगी| यह उसी में तीन-पांच करता रहा और गाड़ी खिसकती रही |बाद में बड़ा ट्रैक्टर खरीदे घर-खेती के लिए |उसने इसे माँगा तो फिर दे दिए और उसे भी साला कबाड़ा बना दिया |अब वो ट्रैक्टर दुआरे पर खड़ा है |”
“इतना सब होने पर आप ने उसे बस का मालिक बनाया !”
“ममता में पड़ के अँधा हो गया था |सोचा कि यहाँ रहेगा तो काम भी देखेगा और नजर के सामने भी रहेगा |यहीं पर धोखा खा गए |पढ़ा-लिखा तो था ही |उस पर कई तरह के कागज़ी काम इसलिए उसे कहा कि तुम गद्दी सम्भालो बाकि खटपट हम लोग देख लेंगे| पर साsला सब - - -“
“देवगांव-लालगंज-मेह्नाजपुर-खरियानी-आजमगढ़ “ बस वाले की पुकार सुन मैं वहीं से चिल्लाया-
“भाई,कितनी देर में चल रहा है |”
उधर से कोई जवाब नहीं आया |दादा ने पूछा-“कहाँ जाना है ?”
“लालगंज उतरूँगा |”
दादा ईधर-उधर देखते हैं |
“साला,अभी कोई परिचय का कंडकटर भी नहीं दिख रहा |दो बजे तक रुकोगे तो बेटा जिस पर पर कंडेक्टर है उसी में बिठा दूँगा |रुपया-भाड़ा नही लगेगा |”
“तो आप का लड़का कंडकटर है ?और कितने लोग हैं परिवार में - - “
“उसे तो अपनी बस में ही फिट किए थे |जहाँ पैसे वाली बात थी वहाँ हर जगह अपना आदमी ही लगाए थे |तभी तो इतना जुड़ पाया पर एक कपूत और सब चौपट !!एक बेटा और है जो हाईस्कूल की परीक्षा दिया है |घरवाली है वो शुरु से गाँव में ही रही है |”
“तो क्या आप अब भी स्वयं पकाते हैं ?और रहते कहाँ हैं ?”
“वो मझला भाई है ना !वो परिवार रखा है |वहीं खाना-पीना होता है |यहीं पंप पर चौकीदारी के समय से कोठरी मिली है| उसी में सब लोग रहते हैं |- - - - - इस कोठरी को लेकर भी तो कम्पनी बहुत दबाब डाली है कि इसे छोड़ दें |पर छोड़ेंगे नहीं |फैसला आ जाने के बाद भी अभी कोई पैसा नहीं मिला है |जिस अग्रवाल को ये पंप मिला है उसने मामला इलाहाबद हाईकोर्ट में डलवा दिया है |वहाँ उसका रिश्तेदार जज है |पर मैं भी क्षत्रिय हूँ |अंत तक लड़ूँगा |”
“सही कह रहे हैं |जब तक पैसा ना मिले,बिल्कुल मत छोड़ना,वरना बहुत मुशकिल होगा |” मैंने समर्थन देते हुए कहा
“बिल्कुल ,कोर्ट से कहूँगा कि फैसला मेरे हक में आया था-‘तबादले का पत्र द्वेष की भावना से दिया गया था |’ यहाँ सरकार लोगों को आवास दे रही है और ये कम्पनी मुझे सड़क पर फैंकना चाहती है |घर से निकाल दिया तो मैं कहाँ जाऊँगा अपना परिवार लेकर |जरूरत पड़ी तो मोदीजी से भी फ़रियाद करूँगा |”
“दादा,चेहरे पर घाव का इतना बड़ा निशान |क्या एक्सीडेंट हुआ था कभी |”
“एक्सीडेंट नहीं |मुँह का कैंसर था |पांच साल पहले ही जाँच में आया था |साला कभी सुपारी भी नहीं खाया और कैंसर ! छह घंटे आपरेशन चला |बस मरते-मरते ही बचा |भगवान भी अभी और परीक्षा लेना चाहता है |शायद चाहता है कि मैं फिर से सब कुछ बनाऊँ |फिर से आसमान छूऊँ उस पंछी की तरह |” उन्होंने बहुत ऊँचाई पर उड़ रहे पंछियों की तरफ देखते और मुस्कुराते हुए कहा |
घर से तीन बार फ़ोन आ चुका था |बरहाल मैंने उन्हें नमस्कार किया |वादा किया कि मौक़ा मिला तो वापसी में भी उनसे मुलाकात करूँगा |एक बार मैंने आसमान में उड़ रहे परिंदों को निहारा और पास में खड़ी बस में चढ़ गया |
सोमेश कुमार(मौलिक एवं अमुद्रित )
Comment
भाई सोमेशजी, किस्सागोई में आपका ज़वाब नहीं है. आपकी कहानी दुलकी चाल में हमें लिए आगे बढ़ती जाती है.
पिछली कहानी में भी हमने इशार अकिया था कि पंक्चुएशन और स्पेस का अपना महत्त्व है. पठनीयता बढ़ जाती है
दूसरे, कहान्यों के शिल्प के साथ-साथ उद्येश्य और तदनुरूप कहन पर भी ध्यान दें.
मैं दोनों भाग पढ़ गया.. हार्दिक शुभकामनाएँ ..
आपकी कहानियों का इंतज़ार रहेगा.
प्रिय सोमेश
तुम्हारी अपनी एक शैली है .ठीक है चलते रहो . शीर्षक पर ध्यान दो - एक पंछी हौसले का
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