वजन : 2122 1212 22
वक़्त किसका गुलाम होता है
कब कहाँ किसके नाम होता है
कल तलक जिससे था गिला तुमको
आज किस्सा तमाम होता है
खास है जो मुआमला अपना
घर से निकला तो आम होता है
आज जग में सिया नहीं मिलती
औ’ किताबों में राम होता है
चिलमनो में मुहब्बतें कल थी
अब तमाशा ये आम होता है
अश्क कल दर्द के जो पीते थे
हाथ में आज जाम होता है
रास्ते तो करीब आ जाएं
दूर कितना मुकाम होता है
रंजिशे तुम जहां कहीं पालो
मौन उस पर विराम होता है
‘राज’ ख्वाबों में ही नहीं मिलती
रूबरू अब सलाम होता है
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Comment
आदरणीय सौरभ जी दिल से प्रभूत आभार आपका
मेरे कहे को मान देने के लिए मैं हृदय से आभारी हूँ, आदरणीया राजेश कुमारीजी.
सहमति से स्वीकार्य इन परिवर्तनों को आपकी ग़ज़ल पर लागू किया जाता है, आदरणीया..
सादर
आदरणीय सौरभ जी ग़ज़ल पर आपकी तारीफ़ सुनकर मेरा भी मन झूम गया है आपने जो इस्स्लाह दी है सही दी है। मेरी डायरी में एक शेर में पहले से ही तो था इसमें पोस्ट करते वक़्त वो कर दिया था दूसरे शेर में बस के स्थान पर औ ही ठीक लगेगा। तहे दिल से आपका बारम्बार शुक्रिया ।
आदरणीया राजेश कुमारी जी, बधाई बधाई बधाई
मन झूम गया ग़ज़ल पढ कर.. .
पुनः बधाई
संप्रेषण थोड़ा और कसा जाय, जैसे इन शेरों को देखें -
पास है जो मुआमला अपना
घर से निकला वो आम होता है ... . सानी में वो को तो करना बहुत कुछ कहने लगता है
आज जग में सिया नहीं मिलती
बस किताबों में राम होता है....... ..... सानी में बस को औ’ किया जाय तो मिसरों में एकसार भी बना रहेगा और बात ठोस हो कर विश्वास के साथ आयेगी.
ऐसा मेरा मानना है.
एक अच्छी ग़ज़ल के लिये पुनः धन्यवाद.
शुभम्
प्रिय महिमा श्री जी आपको ग़ज़ल पसंद आई तहे दिल से शुक्रिया आपका
आदरणीय राजेश दी .. बहुत ही खुबसूरत गजल ... क्या बात है !!!! बहुत -२ बधाई आपको
आदरणीय सानी कर्तार्पुरी जी ग़ज़ल आप जैसी शख्सियत से सराहना पाकर धन्य हुई तहे दिल से शुक्रिया |
प्रिय गीतिका ग़ज़ल पर आपकी प्रतिक्रिया आपकी सराहना सर आँखों पर तहे दिल से आभार
आदरणीय शिज्जू एस जी ग़ज़ल पर आपकी प्रतिक्रिया हेतु तहे दिल से आभार |
जीतेन्द्र पास्तारिया जी ग़ज़ल पर आपकी प्रशंसा से दिल हर्षित है पाठक को लेखन आ जाए और क्या चाहिए दिल से आभार आपके आत्मीय शब्द मिले तहे दिल से आभार मेरा लिखना सार्थक हुआ
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