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कैसी ये बदहाली है ,
हर इंसान सवाली है ।

सूखे-सूखे होंठ सभी ,
उस चहरे पे लाली है ।

कौन ग़मों से बच पाया ,
सबने पीड़ा पाली है ।

जब से कूच कर गई माँ ,
घर भी खाली-खाली है ।

सब समझे हैं सभ्य उसे ,
गुंडा और मवाली है ।

ख़ुशियाँ रूठी बैठी है ,
ग़ुर्बत में दीवाली है ।
मौलिक एवं अप्रकाशित ।

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Comment by Tasdiq Ahmed Khan on September 3, 2017 at 8:51pm
मुहतरम जनाब आरिफ़ साहिब आदाब , उम्दा ग़ज़ल हुईहै छोटी बह्र में ,मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं
Comment by Mohammed Arif on September 2, 2017 at 11:40pm
बहुत-बहुत से आभार आदरणीय बृजेश कुमार जी ।
Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on September 2, 2017 at 11:35pm
वाह वाह बहुत उम्दा ग़ज़ल हुई हार्दिक बधाई
Comment by Mohammed Arif on September 2, 2017 at 9:37pm
आदरणीय आशुतोष जी ग़ज़ल पर शिरकत का बहुत-बहुत शुक्रिया ।
Comment by Mohammed Arif on September 2, 2017 at 9:35pm
आली जनाब मोहतरम समर कबीर साहब आदाब, ग़ज़ल पर शिरकत और दाद ओ तहसीन का शुक्रिया ।
Comment by Dr Ashutosh Mishra on September 2, 2017 at 9:12pm
इस उम्दा ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई आदरणीय
Comment by Samar kabeer on September 2, 2017 at 10:31am
जनाब मोहम्मद आरिफ़ साहिब आदाब,उम्दा ग़ज़ल हुई है,दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ ।

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