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आँखों देखी – 4 डॉक्टर का चमत्कार

आँखों देखी – 4 डॉक्टर का चमत्कार

 

भूमिका :

 

           मैं प्राय: लोगों से कहता रहता हूँ कि जिसने अंटार्कटिका का अंधकार पर्व अर्थात तथाकथित शीतकालीन अंटार्कटिका नहीं देखा है उसके लिये इस अद्भुत महाद्वीप को जानना अधूरा ही रह गया, भले ही उसने ग्रीष्मकालीन अंटार्कटिका कई बार देखा हो. ऐसा इसलिये कि दो महीने तक लगातार सूरज का उदय न होना हमारे शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य को गम्भीर रूप से प्रभावित करता है. एक छोटे से स्टेशन के अंदर सीमित मनोरंजन और सीमित आधारभूत सुविधाओं के सहारे कुछ इने-गिने चेहरों को देखते हुए (जो रोज़ और भी थके से लगने लगते हैं) कठोर तथा एक-स्वर (monotonous) जीवन जीना किसे कहते हैं, यह केवल वही बता सकता है जिसने वास्तव में उसे जीया है. अंटार्कटिका के जीवन चक्र में यही समय होता है जब वहाँ कर्तव्यरत अभियात्रियों की मानसिक शक्ति, शारीरिक सामर्थ्य, उनके चरित्र, बोध और बुद्धि की कठिन परीक्षा होती है. ऐसे समय में जब चौबीस घण्टे अंधेरा होता, तेज़ बर्फीले तूफान चलते हैं और भू-चुम्बकीय क्षेत्र (Geo-magnetic field) में उल्लेखनीय परिवर्तन आते रहते हैं, यह आवश्यक है कि अभियात्रियों को व्यस्त रखा जाये और उनमें आपसी सौहार्द की ओर विशेष ध्यान दिया जाए. यही वह समय होता है जब मात्र दल के नेता ही नहीं अपितु सुदूर देश की धरती से उन पर नज़र रखने वाले विशिष्ट अधिकारीगण और अभियात्रियों के परिजनों के धैर्य और पारिस्थितिक समझ की भी परीक्षा होती है.
हमारे दल ने भी आने वाले उन दो महीनों के लिये विशेष प्रबंध किया जब हमें सूर्य की रोशनी नहीं मिलनी थी. हमारे दलनेता के अतिरिक्त अन्य सभी ऐसे अनुभव से अनभिज्ञ थे. ऐसे समय में स्वास्थ्य सम्बंधी बहुत से प्रश्न उठ खड़े हो सकते हैं जिसमें मानसिक अस्थिरता हो सकने का ख़तरा ही सबसे चिंताजनक सम्भावना के रूप में उभर कर सामने आता है. लेकिन उस दिन – जिस दिन की घटना का वर्णन करने जा रहा हूँ – कुछ अप्रत्याशित ही हुआ ! !

 

कथा :
     

           अंटार्कटिका में दो महीने का अंधकार शुरु होने वाला था. तापमापक में पारा नित-प्रतिदिन नीचे की ओर खिसक रहा था. हम आने वाले विशेष अनुभव के लिये तैयार हो रहे थे. उस दिन सुबह नाश्ते के लिये कॉमन रूम में एकत्रित हुए तो दल के एक वरिष्ठ सदस्य जो भारतीय सेना में मेजर और पेशे से इंजीनियर थे, डॉक्टर के पास आये और बोले “ डॉक्टर, मुझे बुख़ार है, सर में दर्द भी है. एक क्रोसीन दे दो”. डॉक्टर ने उनका हाथ पकड़ा तो चौंक गये. उन अधिकारी को तेज़ बुख़ार था. कुछ सवाल-जवाब के बाद डॉक्टर ने कहा “ आपको दवा तभी दूंगा यदि बहुत आवश्यक हो. फिलहाल आप नाश्ता कीजिये और ठीक तरह से कपड़ों में लैस होकर स्टेशन के बाहर निकल जाईये.” डॉक्टर ने आगे कहा कि उन मेजर साहब के साथ दल के एक और सदस्य बाहर जाएँ, उनके साथ-साथ रहें तथा अगले एक घण्टे तक स्टेशन में वापस न आएँ. उन्हें एक ‘वॉकी-टॉकी’ दिया गया जिससे हम लोगों के साथ उनका सम्पर्क बना रहे. मेजर साहब के साथ जिन्हें भेजा गया उनको हिदायत दी गयी कि मेजर साहब का ध्यान रखें और किसी भी परेशानी की स्थिति में हमें तुरंत सूचित करें.
           यहाँ एक बात कहना आवश्यक है कि किसी भी स्वास्थ्य सम्बंधी आपात्कालीन परिस्थिति में अंटार्कटिका स्टेशन का डॉक्टर अस्थायी रूप से नेता की ज़िम्मेदारी सम्भालता है और डॉक्टर का निर्णय मानना दलनेता सहित सभी के लिये अनिवार्य होता है.
हम अवाक हो देख रहे थे डॉक्टर का कार्यकलाप. उन्होंने मेजर साहब को तेज़ बुख़ार के बावजूद कोई दवा नहीं दी. इतना ही नहीं उनको स्टेशन के बाहर खुले आसमान के नीचे भेज दिया गया और वह भी कम से कम एक घण्टे के लिये. निर्देशानुसार उन दोनों के बाहर जाने के बाद डॉक्टर ने जो कहा उससे हम सब परेशान हो गए. आदेश हुआ कि स्टेशन की सारी ऐसी खिड़कियाँ खोल दी जाएँ जिनसे बाहर की शुद्ध हवा अंदर आ सकती थी. साथ ही स्टेशन को गर्म रखने के सभी उपायों पर प्रतिबंध लगा दिया गया. जब डॉक्टर को बताया गया कि पानी जम जाने से स्टेशन के अंदर के पाईप फट जाएँगे, उन्होंने कहा कि पाईप बदले जा सकते हैं लेकिन स्टेशन को ठण्डा करना आवश्यक है.
           डॉक्टर के निर्देशानुसार सभी क़दम उठाये गये. स्टेशन के भीतर हम लोगों ने भी ठण्ड का सामना करने के लिये उचित वस्त्र पहन लिये. देखते ही देखते स्टेशन के अंदर का तापमान भी शून्य से 45 डिग्री सेल्सियस नीचे उतर गया. बर्फ़ जमने के कारण पानी के पाईप कई जगह फट गये. हड्डी को कँपा देने वाली हवा स्टेशन के अंदर हर कोने में पहुँचने दिया गया. एक घण्टे तक ऐसा चलने देने के बाद डॉक्टर ने मेजर साहब के साथ वॉकी-टॉकी पर बात कर उनका हालचाल पूछा. पता चला कि उनका ज्वर काफूर हो गया है और वे बहुत अच्छा महसूस कर रहे हैं.
           थोड़ी ही देर में डॉक्टर ने आदेश दिया कि स्टेशन को सामान्य स्थिति में वापस ले आया जाए. लम्बी प्रक्रिया होनी थी. काफ़ी समय लगा स्टेशन को पुन: आरामदायक तापमान पर पहुँचाने में और फटे हुए पाईपों को बदलकर स्टेशन में गर्म पानी की सप्लाई बहाल करने में. स्टेशन को सामान्य करने की प्रक्रिया शुरु होते ही मेजर साहब अपने सहयोगी सहचर के साथ स्टेशन के अंदर आ गये थे. जब देर से हम सब खाना खा चुके, दलनेता ने एक सभा बुलायी. यहाँ डॉक्टर को हम सबकी जिज्ञासाओं का उत्तर देना था.
           चाय की चुस्की लेते हुए डॉक्टर ने बताया कि मेजर साहब को लगभग 103 डिग्री फ़ाहरेन्हाइट बुखार था. यह बहुत चिंताजनक बात थी क्योंकि अंटार्कटिका जैसे शुद्ध वातावरण वाले स्थान में इतने दिन रहने के बाद किसी को इस तरह अचानक बुख़ार आना सामान्य तौर पर अपेक्षित नहीं है. डॉक्टर को संदेह हुआ कि बुख़ार आने का कारण कोई वायरस या बैक्टीरिया है जो स्टेशन के अंदर ही है. उन्होंने मेजर साहब से गहन पूछ्ताछ की थी. पता चला था कि स्टेशन ड्यूटी के तहत पिछले दिन, और रात में भी वे कई बार उस भण्डार गृह में गये थे जहाँ हमारे खाने के लिये सामान रखा था जिसमें चावल, दाल, आटा आदि के बोरे भी थे. डॉक्टर को संदेह हुआ था कि ऐसे किसी बोरे में ही वह अंजाना वायरस/बैक्टीरिया अनाज की गर्मी के सहारे जीवन दान पाता हुआ सुदूर भारत से अंटार्कटिका के दक्षिण गंगोत्री स्टेशन में बिना टिकट ही आ गया था और उस समय चुपके से मेजर साहब पर हमला बोल दिया जब वे वहाँ से किचन के लिये रसद निकालने गये थे. फलत: उनको तेज़ बुख़ार आ गया था. डॉक्टर को चिंता थी कि यदि उस वायरस/बैक्टीरिया को और थोड़ा समय मिल जाये तो उस छोटे से स्टेशन के अंदर महामारी फैल सकती है और न जाने उसका दुष्प्रभाव क्या कर बैठे !! अत: उन्होंने गर्मी के सहारे जीने वाले वायरस/बैक्टीरिया को मारने के लिये प्रकृति का सहारा लेना उचित समझा. माईनस 45 डिग्री सेल्सियस तापमान उसके लिये भारी पड़ा. एक घण्टा बाहर रहने के बाद मेजर साहब का स्वास्थ्य सामान्य होने से डॉक्टर के चिंतासूत्र की सत्यता प्रमाणित हो गयी थी.
          यह एक असाधारण अनुभव था हम सबके लिये और सीख भी कि विपत्ति में धैर्य तथा संयम से काम लेना कितना आवश्यक है. एक बुद्धिमान, सचेत डॉक्टर की निगरानी में पूरे दल को न जाने किस विपदा से मुक्ति मिल गयी. दल के सभी सदस्यों ने डॉक्टर का आभार व्यक्त किया.
          क्या ऐसा अनुभव हमें अथवा आपको भारत में या अन्यत्र कहीं हुआ है? यही कारण है कि मैंने इस घटना को आपके साथ साझा किया.
         ‘आँखों देखी’ के अगले संस्करण में एक दूसरे तरह के अनुभव की बात करूंगा. तब तक तीसरे शीतकालीन दल के सदस्यों को “दक्षिण गंगोत्री” में और व्यवस्थित हो जाने दें.

 

(मौलिक व अप्रकाशित सत्य घटना)
 

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on August 27, 2013 at 8:50pm

आदरणीय डॉ० शरदिन्दु जी,

आप अपने अंटार्कटिका के अनुभवों को इतनी जीवन्तता के साथ प्रस्तुत करते हैं कि नज़रों के सामने चल चित्र से तैरने लगते हैं.. और आपके शब्द शब्द से जुड़ते जाते हम ऐसा ही महसूस करते हैं जैसे हम ही अनुभव कर रहे हैं ... इस अभिव्यक्ति सामर्थ्य के लिए आप बहुत बहुत बधाई स्वीकार कीजिये.

आपके अनुभवों के रोमांच को एक पाठक की तरह अनुभव करना एक दूसरी दुनिया में ही ले जाता है.

ये नयी नयी जानकारियाँ हमारी समझ की बंद खिड़कियों को थोडा सा खोल विस्तार देती हैं..

दो महीने बिल्कुल अँधेरे में रहना , और दो माह बिल्कुल उजाले में रह जाना ऐसे जीवन की कल्पना भी बहुत मुश्किल है... आपने उससे जुड़ी तमाम बातें साँझा की इसलिए हम आपके आभारी है. ये ज़रूर है ही डॉक्टर साहब के ज्ञान ज़मीन कितनी सूझबूझ कौशल और समय के अनुसार व्यावहारिक है उसने उनकी विद्यानिष्ठा पर नत होने को बाध्य किया है 

आपका हार्दिक धन्यवाद 

सादर.


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on August 27, 2013 at 2:57am

आपकी इस प्रस्तुति पर विलम्ब से आना हो रहा है मेरा, आदरणीय.

जिस अद्वितीय ढंग से रोग़ का इलाज़ हुआ वह चेतन मस्तिष्क की मांग करता है. साथ ही यह घटना ये भी बताती है कि चेतन मस्तिष्क निर्भर करता है अनुभव पर. डॉक्टर साहब ज़मीनी सोच के एक पगे हुए अनुभवी थे, न कि महज़ एक डिग्री-ग्रैबर !

भिन्न वातावरण, जिसकी हम जैसे सामान्य जन कल्पना तक नहीं कर सकते, की अनुभूतियों को हमसे साझा कर आपने हम पर बहुत उपकार किये हैं, आदरणीय शरदिन्दुजी.

आभार


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by sharadindu mukerji on August 26, 2013 at 12:12pm
आदरणीय डॉ आशुतोष मिश्र जी, मेरा हौसला बढ़ाने के लिये हार्दिक आभार.

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by sharadindu mukerji on August 26, 2013 at 12:10pm
आदरणीय श्री माथुर, सादर आभार.

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by sharadindu mukerji on August 26, 2013 at 11:15am

श्रद्धेय विजय जी, यह बड़ों का आशीष ही था कि ऐसे अनुभव मुझे हुए और यह उस आशीष का ही फल है कि आप लोगों के सम्पर्क में आया हूँ जिन्हें प्रकृति के विचित्र नियमों से परिचित होने का नशा है. सादर.


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by sharadindu mukerji on August 26, 2013 at 11:11am

आदरणीया अन्नपूर्णा जी, आपकी टिप्पणी ने मेरा मान बढ़ाया. सादर आभार.


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by sharadindu mukerji on August 26, 2013 at 11:10am

भाई बृजेश जी,

आपको यह प्रस्तुति अच्छी लगी जानकर बड़ा संतोष मिला. प्रयत्न करूंगा कि अपना हर छोटा-बड़ा अनुभव जो आम जीवन के अनुभवों से हटकर हो, आप सबसे साझा करूँ. सादर.

Comment by Dr Ashutosh Mishra on August 25, 2013 at 9:02am

आदेर्नीय शरदिंदु जी   बड़ा ही अद्भुत अनुभव ..डॉ की जबरदस्त सोच का भी कोई जवाब नहीं...वाकई शानदार लेख ...इतनी अच्छी जानकारी देने के लिए हार्दिक बधाई 

Comment by D P Mathur on August 24, 2013 at 7:44pm

आदरणीय आपके अनुभव ने हमारा ज्ञान भी बढ़ाया और सीख भी दोहराई , आपका आभार!

Comment by vijay nikore on August 24, 2013 at 7:19pm

आदरणीय शर्दिन्दु भाई,

 

//यह एक असाधारण अनुभव था हम सबके लिये और सीख भी कि विपत्ति में धैर्य तथा संयम से काम लेना कितना आवश्यक है. एक बुद्धिमान, सचेत डॉक्टर की निगरानी में पूरे दल को न जाने किस विपदा से मुक्ति मिल गयी//

 

सचमुच एक अच्छी सोच का डाक्टर, एक अच्छी सोच का मानव कितना कुछ दे सकता है,यह आपके लेख में स्पष्ट है।

आपका यह आलेख भी रोचक लगा। आपको बधाई और हमारे ज्ञानवर्धन के लिए धन्यवाद।

 

सादर,

विजय निकोर

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