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आदरणीय सौरभ सर ऐसी चर्चा हर पाठक के लिए उसके सृजन को गहनता से निखारने में अत्यंत लाभकारी होती है। आपके द्वारा प्रवाहित इस ज्ञान गंगा हेतु मैं व्यक्तिगत रुप से आपका आभार प्रगट करता हूँ। सीखने और सिखाने का इस मंच पर अनुपम संगम होता है। हार्दिक आभार सर।
अब ’भाव प्राकट्य’ का नाम ही ’उक्ति-विस्फोट’ या ’भाव-विस्फोट’ है तो क्या किया जा सकता है, आदरणीया प्राचीजी. :-))
यह अवश्य है कि इस तरह के किसी ’विस्फोट’ के चलते किसे को अपने कान बन्द करने की आवश्यकता पड़ती, बल्कि, पाठक से संवेदना के तंतु सचेत रखने का आग्रह हुआ करता है.
:-)))
मेरा आँगन गुँजाती है नन्ही परी ।
पंछी बन चहचहाती है नन्ही परी ।
उसकी मुस्कान से फूल सारे खिले
हँस के गुलशन सजाती है नन्ही परी ।
वाह बहुत ही सुंदर और भावपूर्ण अशआर हैं आपकी इस दिलकश ग़ज़ल में। हार्दिक बधाई आदरणीया डॉ प्राची सिंह जी।
मैं पहेली नहीं बुझवा रहा, आदरणीया कान्ताजी. हालाँकि, अभी कइयों को यही लग रहा होगा. लेकिन ग़ज़ल के पुराने और गंभीर रचनाकर्मी हैं इस मंच पर. मैं उनसे अपेक्षा कर रहा हूँ कि वे ज़रा आयें और मेरे कहे को समझायें. या, मैं ग़लत हूँ तो मेरी समझ का परिमार्जन करें.
आदरणीया प्राची जी की ग़ज़ल से बढिया और कोई प्रस्तुति नहीं हो सकती जिस पर ग़ज़ल के भाव पक्ष को लेकर ऐसी खुली चर्चा हो सके. कारण ? वो यह है, कि --
१. आदरणीया प्राचीजी कोई नयी-नयी रचनाकार नहीं हैं.
२. वे मंच की वरिष्ठ रचनाकर्मी हैं. अतः उनका दायित्वबोध अधिक गहराई लिये हुए है.
३. वे आवश्यकता से अधिक संवेदनशील नहीं हैं. वे सोचने नहीं बैठ जायेंगी कि उनकी रचना पर पता नहीं क्या कुछ लिख दिया गया.
४. ग़ज़ल ऐसी विधा है जो बहुत कुछ की अपेक्षा करती है. वह ’बहुत कुछ’ क्या है, इस पर जानकार लोग अपनी बातें रखें.
५. वे किसी विधा के मर्म तक पहुँच कर तदनुरूप अभ्यास करती हैं. अतः वे उपयुक्त शिष्य हैं.
६. इस तथ्य का साक्षी यह मंच ही है कि वे अत्यंत उत्साही लगनशील अभ्यासकर्मी हैं. अतः, उनके माध्यम से चर्चा होना समीचीन है.
७. रचना पर संवाद बनाने की प्रक्रिया पुनः व्यवहार में आयेगी.
सर्वोपरि, मंच पर रचनाओं के माध्यम से रचनाकर्म तथा विधाओं पर संवाद होना एक तरह से रुक गया है.अकसर ’जानकार’ पाठक भी ’वाह-वाह’ कर पल्ला झाड़ते हुए निकलते दिखते हैं. और तो और, मंच पर एक वर्ग ऐसा भी खड़ा हो गया है जो व्यक्ति पूजा में भले न यकीन करता हो, रचनाकार के नाम को देख कर अवश्य ’टिप्पणियाँ’ करता है. यह इस मंच की परिपाटी नहीं रही है. यह मंच ऐसा है, जहाँ, इसके प्रधान सम्पादक की रचनाओं में अशुद्धि होने पर लाल रंग लगता है, या सवाल उठते हैं, उठाये जाते हैं. फिर हम जैसों की बिसात ही क्या है.
सादर
"ग़ज़ल की पंक्तियों के माध्यम से उक्ति-विस्फोट का संभाव्य बना रहना" ये कैसा धमाका करने वाल भाव गजल में होता है आदरणीय चाँद तारे तोड़ लाने वाला जैसा ? इसे किसी शायर की पंक्ति की व्याख्या कर समझाए तो कृतज्ञ रहेंगे | सादर
//ये ग़ज़ल क्यों नहीं हो सकती? //
ये ग़ज़ल हो क्यों नहीं सकती ? अवश्य हो सकती है. लेकिन जो मैंने पहले की टिप्पणी मेंमैंने कहा उसे आपने कितना समझा ? ’ग़ज़ल की पंक्तियों के माध्यम से उक्ति-विस्फोट का संभाव्य अवश्य बना रहता है’ - इस वाक्य से क्या ज़ाहिर होता है ?
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