माना नशात ए ज़ीस्त है बेज़ार आज भी,
हम हैं मता ए ग़म के ख़रीदार आज भी..
माना बदल चुकी है ज़माने कि हर रविश,
दो चार फिर भी मिलते हैं गम-ख़्वार आज भी..
बच कर जहां पे बैठ सकें ग़म की धूप से,
मिलता नहीं वो सायए दीवार आज भी..
सुलझेंगी किस तरह मिरि किस्मत की उलझनें,
उलझे हुऐ हैं गेसुए-ख़मदार आज भी..
यारों हमारे नाम से है मयक़दे की शान,
मशहूर है तो हम ही गुनहगार आज भी..
आवाज़-ए-हक़ दबाये दबी है न दब सके,
मन्सूर है बहुत से सर-ए-दार आज भी..
सींचा है अपने ख़ून से हमने भी ये चमन,
"अम्बर" हमीं नहीं है वफ़ादार आज भी..!!
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
जनाब ज़ोहेब 'अम्बर' जी आदाब, ग़ज़ल का अच्छा प्रयास है,बधाई स्वीकार करें ।
ग़ज़ल के साथ अरकान भी लिख दिया करें,इससे नए सीखने वालों को आसानी होती है ।
'यारों हमारे नाम से है मयक़दे की शान'
इस मिसरे में 'यारों' को "यारो" कर लें ।
'मन्सूर है बहुत से सर-ए-दार आज भी'
इस मिसरे में 'है' को "हैं" कर लें ।
'सींचा है अपने ख़ून से हमने भी ये चमन,
"अम्बर" हमीं नहीं है वफ़ादार आज भी'
मक़्ते का भाव स्पष्ट नहीं,सानी कमज़ोर है,देखियेगा ।
आ. जोहेब भाई, अच्छी गजल हुई है । हार्दिक बधाई ।
जनाब ज़ोहेब अम्बर साहब, आदाब। इस ख़ूबसूरत ग़ज़ल पर आपको शेर दर शेर हार्दिक बधाई।
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