माना नशात ए ज़ीस्त है बेज़ार आज भी,
हम हैं मता ए ग़म के ख़रीदार आज भी..
माना बदल चुकी है ज़माने कि हर रविश,
दो चार फिर भी मिलते हैं गम-ख़्वार आज भी..
बच कर जहां पे बैठ सकें ग़म की धूप से,
मिलता नहीं वो सायए दीवार आज भी..
सुलझेंगी किस तरह मिरि किस्मत की उलझनें,
उलझे हुऐ हैं गेसुए-ख़मदार आज भी..
यारों हमारे नाम से है मयक़दे की शान,
मशहूर है तो हम ही गुनहगार आज भी..
आवाज़-ए-हक़ दबाये दबी है न दब सके,
मन्सूर…
Posted on January 26, 2020 at 9:55pm — 3 Comments
दर्द सारे ज़ख्म बन कर ख़ुद-नुमा हो ही गये,
राज़-ए-पोशीदा थे आख़िर बरमला हो ही गये..
तू ना समझेगा हमें थी कौन सी मजबूरियाँ,
तेरी नज़रों में तो अब हम बे-वफ़ा हो ही गये..
इश्क़ क्या है, क्या हवस है और क्या है नफ़्स ये,
उठते उठते ये सवाल अब मुद्द'आ हो ही गये..
एक मुददत बाद उस का शहर में आना हुआ,
बे-वफ़ा को फिर से देखा औ फ़िदा हो ही गये..
फिर सुख़न में रंग आया उस ख़्याल-ए-ख़ास का,
फिर ग़ज़ल के शेर सारे मरसिया हो ही…
Posted on October 21, 2018 at 2:45am — 1 Comment
सुन कर ये तिरी ज़ुल्फ़ के मुबहम से फ़साने,
दश्ते जुनुं में फिरते हैं कितने ही दीवाने..
कब साथ दिया उसका दुआ ने या दवा ने,
आशिक़ को कहाँ मिलते हैं जीने के बहाने..
मुमकिन है तुम्हें दर्स मिले इनसे वफ़ा का,
पढ़ते कुँ नहीं तुम ये वफ़ाओं के फ़साने..
इस दौर के गीतों में नहीं कोई हरारत,
पुर-सोज़ जो नग़में हैं वो नग़में हैं पुराने..
इस इश्क़ मुहब्बत में फ़क़त उन की बदौलत,
ज़ोहेब तुम्हें मिल तो गये ग़म के…
Posted on October 21, 2018 at 2:30am — 3 Comments
किसकी सुनता है मन की करता है,
मुँह में रखता ज़बान-ए-गोया है..
हक़ बयानी ही उसका शेवा है,
कब उसे ज़िन्दगी की परवा है..
मौत पर ये जवाब उसका है,
क्या अजब है कि इक तमाशा है..
वो जो हर ग़म में इक मसीहा है,
कौन जाने कहाँ वो रहता है..
क्यूँ ख़्यालों में है अबस मेरे
किस ने ज़ोहेब उसको देखा है..??
मौलिक एवं अप्रकाशित।
Posted on September 11, 2018 at 10:30am — 1 Comment
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