प्रधान संपादक, आदरणीय योगराज प्रभाकर जी की टिप्पणी के आलोक में यह रचना पटल से हटायी जा रही है ।
सादर
गणेश जी बाग़ी
Comment
जनाब समर साहब, हम आपको अहमक नही बहुत ही जहीन समझते रहे हैं । आप तो पूर्व से ही ठान कर बैठे हैं कि कविता हटा दी जाय ।
ओबीओ से कितनी मुहब्बत है इसके लिए मुझे किसी से प्रमाण लेने की जरूरत नही । आज दस वर्षों से ओ बी ओ कैसे चल रहा है यह बताना मैं इस समय मुनासिब भी नही समझता, जो जानते है वो समझते हैं ।
मेरी टिप्पणी को कृपया सफाई नही समझी जाय, यह केवल पाठकीय टिप्पणियों पर लेखकीय टिप्पणी है ।
जनाब बाग़ी जी,आपने जो सफ़ाई दी है वो मेरे गले नहीं उतरती, आप हमें अहमक़ समझ रहे हैं, आप अगर वाक़ई ओबीओ से महब्बत करते हैं तो इस कविता को तुरंत हटा लें,और इस पर तर्क न दें,एक शैर याद आया:-
'वो अपने आप को कुछ भी कहा करें लेकिन
सवाल ये है कि चर्चा अवाम में क्या है'
और अगर आप इस कविता को नहीं हटाते तो मुझे हटा दें,ये मैं बहुत सोच समझ कर कह रहा हूँ ।
प्रिय नीलेश भाई, मैं पुनः कहता हूं कि आप इसलिए कविता को नही अश्वीकार करे कि आपने किसी भ्रम में पूर्व में अश्वीकार कर दिए है और अब अपनी बात पर अड़े रहना चाह रहे है । यह क्या बात हुई कि रचना हटा दी जाय या आपको । रचना यदि आलोचना योग्य है तो स्वस्थ आलोचना होने दीजिए ।
रही बात शपथ की तो हम चलते चलते कहाँ पहुँच गए कि हमे अपनी अभिव्यक्ति के साथ यह डिस्क्लेमर संतान की शपथ के साथ व्यक्त करनी होगी ।
और यह कि भक्त शब्द शीर्षक में जोड़ने भर से सब स्वीकार्य है ।
आप सभी पाठकों को प्रणाम।
मैं जिस जगह पर पोस्टेड हूँ यहाँ नेट कनेक्टिविटी बहुत सही नहीं है।
फिलहाल अपनी बात में एक छोटी सी घटना का उल्लेख करते हुए करना चाहता हूँ। यह कविता मैंने फेसबुक पर भी डाली है, वहाँ मुस्लिम समुदाय के एक मित्र ने मेरे इनबॉक्स में आकर कहा कि बाग़ी जी आप एक धर्म विशेष को केंद्रित कर यह कविता पोस्ट की है। मैंने कहा कि ऐसा नहीं है, मैंने एक चरित्र को केंद्रित करते हुए कविता लिखी है। तो उन्होंने कहा कि बाग़ी जी छोड़िए बहानेबाजी, क्या मुझे नही पता..! मैं दंग रह गया, कि इस ढंग से विचार कर कोई कविता भी पढ़ता है। यह तो कविता को अभिधात्मक ढंग से पढ़ना और समझना हुआ। मैंने आगे कुछ कहना उचित नही समझा। क्योंकि फेस बुक के पाठकों पर अधिक क्या कहना?
खैर, अब मैं आता हूँ इस पोस्ट और इसपर आयी समेकित टिप्पणियों पर।
साथियो, सबसे पहले अनुरोध है कि इस कविता को संकुचित रूप से न लेकर तनिक उदारतापूर्वक लें, और निम्न तथ्यों पर ध्यान देते हुए खुले हृदय से विवेचना करें ।
-- इस कविता में कहीं भी धर्म विशेष का उल्लेख नही किया गया है ।
-- यह कविता एक एकल चरित्र के मनोभाव को लेकर लिखी गयी है । जैसा कि साहित्य में संवेदनापूर्वक लेखन की परिपाटी रही है। ऐसी अनगिनत महिला पात्र रही हैं।
-- यदि किसी चरित्र पर लिखी कविता को सार्वभौमिक कर देखी जाएगी तो कितनी ही कविताएँ, लघुकथाएँ, कहानियाँ, उपन्यास के साथ साथ कई फिल्मों को भी नकारना पड़ेगा, जहाँ धर्म विशेष की नायिका की दशा के माध्यम से एक पूरे वर्ग पर लानत भेजी गयी है। ऐसे कई उदाहरण हैं कि ऐसे में उस बड़े वर्ग या समुदाय ने तीखी प्रतिक्रिया की जगह अपने आप में सुधार किया।
आप सभी से आत्मीय अनुरोध है कि..
-- कृपया कविता को इसलिए न नकारें कि मेरे मोहतरम श्रेष्ठ भाईतुल्य आदरणीय समर साहब और अजीज दोस्त नीलेश जी ने अपनी गलतफहमी में स्वीकार नही किया है ।
-- कविता की आलोचना उसके गुण दोष पर की जाय न कि वह सीधे सीधे यह कहते हुए नकार दी जाय कि वरिष्ठ सदस्यों ने इसे नकार दिया है ।
-- आलोचना कविता की होनी चाहिए न कि कवि की ।
-- कई मित्र सीधे सीधे कवि को आरोपित किये हैं, कृपया ऐसी टिप्पणियों से बचने की कृपा करें ।
साथियो, जब कोई कविता जन्म लेती है तो कवि को सिर्फ कविता दिखती है, न कि कोई जाति, धर्म या किसी व्यक्ति विशेष का चेहरा । मुझे इस बात का पूरा अहसास है कि कौन और कैसी रचनाएँ ओ बी ओ के पटल पर आनी चाहिए । ओ बी ओ अपनी आज तक की यात्रा कई अर्थों में यों ही नहीं तय नहीं कर रहा है । पटल पर रचनाओं का हमेशा से तथ्य सर्वोपरी रहा है, न कि रचनाकार और पाठक विशेष के मत ।
पुनः मैं दोहराना चाहता हूँ कि इस कविता को एक चरित्र विशेष के मनोभाव तक सीमित कर ही देखें और इसको किसी सम्प्रदाय विशेष से जोड़ कर न देखें।
उम्मीद है कि आप सभी बड़ी ही उदारतापूर्वक कविता को स्वीकार करेंगे ।
सादर ।
आदरणीय बागी जी आप की कविता पढ़ी और उसपे आए कमेंट भी पढ़े मैं जब से इस मंच से जुड़ा हूँ मैने बहुत सीखा है और देखा भी है कि आहत करने वाली रचना को यहाँ से तुरंत हटाया जाता है, मैं जब भी समाचारों में किसी पढ़े लिखे इंसान को आतंक या हिंसा के रास्ते में जाने की बात पढ़ता था तो मुझे समझ नहीं आता था कि एक पढ़े लिखे इंसान को कैसे कोई बहका लेता है, आज जो सुब्ह शाम नफरत मिडिया के ज़रिये फैलाई जा रही उसने आपको अपने कब्ज़े में ले लिया और आपके दिल दिमाग़ को दूषित कर दिया है और मुझे आज अपने सवाल का जवाब भी मिल गया कैसे एक पढ़े लिखे इंसान के दिमाग़ को नफ़रत से भरा जा सकता है |मुझे बहुत दुख हुआ आपकी रचना पढ़ कर उसपे आपके पास समय नहीं और नेटवर्क का बहाना और तकलीफ दे रहा, आप चाहते तो दूसरे नेटवर्क से आकर हमारी भावनाओं की कद्र कर लेते पर अफसोस आपने ऐसा नहीं किया, आप अपने वाल पे कुछ भी लिखने के लिए स्वतंत्र है पर इस ग्रुप के नियमों से आप भी बंधे है पर अफसोस, शायद आपका उद्देश्य ही आहत करना था जिसमें आप सफल हो गए इसकी बहुत बहुत बधाई यूँ ही दिल में नफ़रत पालते रहिये और इस नफ़रत के साथ ज़िन्दगी गुज़ारिए |
आदरणीय बाग़ी जी, सादर अभिवादन। आपकी रचना पर विद्वतजनों ने जो आपत्ति उठायी है उससे मैं भी सहमत हूँ। मेरे मतानुसार :
1. आपको अपनी रचना (तुरन्त?) मंच से हटा लेनी चाहिए कारण यह कि आपकी रचना पर कई विद्वान साथियों ने आपत्ति प्रकट की है। मेरी नज़र में कोई भी रचना मानवीय सम्बन्धों से ऊपर नहीं होती। यदि किसी रचना से किसी को चोट पहुँच रही हो तो उसे हटा लेना ही बेहतर है। आपकी जगह मैं होता तो कब का यह कर चुका होता।
2. यदि आप इस पहली बात से असहमत हैं जैसा कि प्रतीत हो रहा है तो आपको अपनी रचना डिफेंड करनी चाहिए। आख़िर यही तो इस ओबीओ मंच की ख़ूबी भी रही है – स्वस्थ परिचर्चा। पूर्व में मैंने भी कई बार इसी मंच पर अपनी रचनाओं को डिफेंड करते हुए उस पर आयी एक-एक आपत्ति का प्रत्युत्तर दिया है। ऐसी ही अपेक्षा मैं आप से भी रखता हूँ।
आप इस मंच के संस्थापक हैं। आपने हम जैसों के लिए सीखने का यह बेहतरीन मंच उपलब्ध कराया है जिसके लिए हम सभी आपके आभारी हैं। इस मंच की विशेषता रही है कि यह सिर्फ़ रचना को देखता है, रचनाकार को नहीं। यही काम इस बार भी मंच के साथियों ने किया है। आपको इस बात पर गर्व होना चाहिए। आप चाहें तो अपनी रचना को मंच से तत्काल हटा कर एक नज़ीर पेश कर सकते हैं। सादर।
आदरणीय नवीन सर,
सहिष्णुता ही अपेक्षित है......सादर
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1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे
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