बहरे हज़ज मुसद्दस महज़ूफ़
1 2 2 2 / 1 2 2 2 / 1 2 2
जो तेरी आरज़ू खोने लगा हूँ
जुदा ख़ुद से ही मैं होने लगा हूँ [1]
जो दबती जा रही हैं ख़्वाहिशें अब
सवेरे देर तक सोने लगा हूँ [2]
बड़ी ही अहम हो पिक फ़ेसबुक पर
मैं यूँ तय्यार अब होने लगा हूँ [3]
जो आती थी हँसी रोने पे मुझको
मैं हँसते हँसते अब रोने लगा हूँ [4]
बढ़ाता जा रहा हूँ उनसे क़ुरबत
मैं ग़म के बीज अब बोने लगा हूँ [5]
जो पुरखों की दिफ़ा मैं कर रहा हूँ
ये क्या क्या बोझ मैं ढोने लगा हूँ [6]
न देखो ये कि मैं क्या कर न पाया
बताओ ये मैं किस कोने लगा हूँ [7]
ये मिट जाएँ नया हो जाऊँ 'शाहिद'
यूँ दिल के दाग़ मैं धोने लगा हूँ [8]
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
जनाब रवि भसीन 'शाहिद' जी आदाब, ग़ज़ल का प्रयास अच्छा हुआ है,बधाई स्वीकार करें ।
'जो पुरखों की दिफ़ा मैं कर रहा हूँ'
इस मिसरे में सहीह शब्द है "दिफ़ा'अ"
और इसका वज़्न 121 है और ये शब्द पुल्लिंग है,देखियेगा ।
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