(1222 *4 )
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महीना-ए-मुहर्रम में मह-ए-रमज़ान ले आये
ग़रीबों के रुख़ों पर गर कोई मुस्कान ले आये
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किनारे पर हमेशा बह्र-ए-दिल के एक ख़तरा है
न जाने मौज ग़म की कब कोई तूफ़ान ले आये
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नहीं है मोजिज़ा तो और इसको क्या कहेंगे हम
ख़ुशी का ज़िंदगी में पल कोई अनजान ले आये
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ये कैसा वक़्त आया है न जाने कब कोई मेहमाँ
हमारी ज़िंदगी में मौत का सामान ले आये
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कभी सोचा नहीं था घर बनेगा एक दिन ज़िंदाँ
मगर इस बात पर हम आजकल ईमान ले आये
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हमारे मुल्क में आज़ादियों का सिर्फ़ है मतलब
यहाँ आफ़त कोई भी सरफिरा नादान ले आये
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मुहब्बत में जो ख़ुश्बू है नहीं मुमकिन किसी शय में
मुक़ाबिल कोई भी इसके भले लोबान ले आये
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पढ़ाता पाठ नफ़रत का बताओ कौन सा मज़हब
चुनौती है कोई गीता कि वो क़ुरआन ले आये
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मुहब्बत नापना मुमकिन कहाँ होता है दुनिया में
'तुरंत' ऐसा कहीं है तो कोई मीज़ान ले आये
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गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत ' बीकानेरी |
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
आदरणीय TEJ VEER SINGH जी, उत्साहवर्धन के लिए दिली शुक्रिया |
हार्दिक बधाई आदरणीय गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत ' बीकानेरी जी। बेहतरीन गज़ल।
ये कैसा वक़्त आया है न जाने कब कोई मेहमाँ
हमारी ज़िंदगी में मौत का सामान ले आये
आदरणीय अमीरुद्दीन खा़न "अमीर " साहेब , आदाब , आपकी हौसला आफ़जाई के लिए दिल से शुक्रगुज़ार हूँ | उर्दू के कई शब्दों में मुझे दिक्कत रहती है , लहज़े से कुछ लफ्ज़ पुल्लिंग होते हुए स्त्रीलिंग होते हैं और कुछ स्त्रीलिंग होते हुए पुल्लिंग | ध्यान आकर्षित करने के लिए हार्दिक आभार |
आदरणीय गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत' जी आदाब ।
मुकम्मल ग़ज़ल शानदार हुई है, शेअ'र दर शेअ'र दाद पेश करता हूँ ।
अंतिम मिसरे में शायद लिपिकीय त्रुटि हो गयी है। मीज़ान यानि तराज़ू शब्द पुल्लिंग है न कि स्त्रीलिंग।
'तुरंत' ऐसी कहीं है तो कोई मीज़ान ले आये के स्थान पर 'तुरंत' ऐसा कहीं है तो कोई मीज़ान ले आये उचित होगा ।सादर।
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