द्वार पर वो नित्य आकर बोलता है
किन्तु अपना सच छुपाकर बोलता है।१।
***
दोस्ती का मान जिसने नित घटाया
दुश्मनों को अब क्षमा कर बोलता है।२।
***
हूँ अहिन्सा का पुजारी सबसे बढ़कर
हाथ में खन्जर उठाकर बोलता है।३।
***
गूँज घन्टी की न आती रास जिसको
वो अजाँ को नित सुनाकर बोलता है।४।
***
दौड़कर मंजिल को हासिल कर अभी तू
पथ में काँटे वो बिछा कर बोलता है।५।
***
सभ्य कितना चल गया सबको पता यह
हो के नंगा क्यों लजाकर बोलता है।६।
***
मौलिक/अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'
Comment
//भ्राता श्री का स्वास्थ्य अब कैसा है ?//
धीरे धीरे बहतर हो रहा है,आपके स्नेह के लिए धन्यवाद ।
आ. भाई समर कबीर जी, सादर अभिवादन । मंच पर आपकी उपस्थिति से अपार हर्ष हुआ । भ्राता श्री का स्वास्थ्य अब कैसा है ?
शेष गजल पर आपकी प्रतिक्रिया व मार्गदर्शन के लिए आभार ।
इंगित मिसरे के अन्त में "तू " शब्द छूट गया है । सुधार लेता हूँ सादर..
आ. भाई सुरेंद्र नाथ जी, सादर अभिवादन । गजल पर उपस्थिति और उत्साहवर्धन के लिए आभार । सम्भवतः गजल में वह बात नहीं बनी जो बननी चाहिए । पुनः विचार करता हूँ।
जनाब लक्ष्मण धामी 'मुसाफ़िर' जी आदाब, ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,बधाई स्वीकार करें ।
'दौड़कर मंजिल को हासिल कर अभी'
इस मिसरे की बह्र चेक कर लें ।
आद0 लक्ष्मण धामी जी सादर अभिवादन। बढ़िया ग़ज़ल का प्रयास है। पर कहूँगा कि यह दिल माँगे मोर। देखियेगा। सादर
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