पत्थर को भी फूल सरीखा होना अच्छा लगता है
काँधा अपनेपन का हो तो रोना अच्छा लगता है।१।
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पहले जगकर रोज भोर में सूरज ताका करते थे
अब आँखों को उसी वक्त में सोना अच्छा लगता है।२।
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छीन लिया है वक्त ने चाहे खेत का जो भी टुकड़ा था
बेटे हलधर के हम जिन को बोना अच्छा लगता है।३।
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घोर तमस के बीच भी जो तब चौपालों में रहते थे
उनको आज उजाले में भी कोना अच्छा लगता है।४।
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दुनिया जिनको हिरनी जैसी कहती फिरती नित्य यहाँ
उन आँखों का हम को यारो टोना अच्छा लगता है।५।
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एक उम्र में अगर अठन्नी खो जाए तो दुख देती
एक उम्र में यारो दिल भी खोना अच्छा लगता है।६।
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हमको भाये डाली पर ही खिलते फूल हमेशा पर
उनको फूल तोड़कर हार पिरोना अच्छा लगता है।७।
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कोरोना से पहले जिन को बच्चे मुश्किल धोते थे
बारबार अब उन हाथों को धोना अच्छा लगता है।८।
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मौलिक/अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'
Comment
गज़ल को बार-बार पढ़ा, लुत्फ़ आ गया। बधाई, मेरे मित्र लक्ष्मण जी।
आ. भाई सालिक गणवीर जी, सादर अभिवादन । गजल पर उपस्थिति और उत्साहवर्धन के लिए आभार ।
आ. भाई गिरधारी सिंह जी, सादर अभिवादन । गजल पर उपस्थिति और उत्साहवर्धन के लिए आभार ।
आ. भाई तेजवीर जी, सादर अभिवादन । गजल पर उपस्थिति और प्रशंसा के लिए हार्दिक आभार ।
आ. भाई सुरेंद्र नाथ जी, सादर अभिवादन । गजल पर उपस्थिति और स्नेह के लिए आभार ।
वाह वाह लाजवाब अशआर हुए हैं आदरणीय
हार्दिक बधाई आदरणीय लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' जी। बेहतरीन गज़ल।
हमको भाये डाली पर ही खिलते फूल हमेशा पर
उनको फूल तोड़कर हार पिरोना अच्छा लगता है।७।
आद0 लक्ष्मण धामी जी सादर अभिवादन। बेहद उम्दा ग़ज़ल, हिंदी शब्दो से सजी। बधाई स्वीकार कीजिये
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