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घर :

अच्छा है या बुरा है
जैसा भी है
मगर
ये घर मेरा है
इस घर का हर सवेरा
सिर्फ और सिर्फ
मेरा है

मैं
दिन रात
इसकी दीवारों से बातें करता हूँ
मेरे हर दर्द को
ये पहचानती हैं
मैं
कौन हूँ
ये अच्छी तरह जानती हैं

धूप
हर रोज
इन दीवारों को धो देती है
दीवारों पर टंगे अतीतों पर
रो देती है
कल भी कहते थे
ये आज भी कहते हैं
ये घर उनका का है
दीवारों पर उनकी यादों का डेरा है

क्या हुआ
जो मैं भी कल अतीत हो जाऊँगा
फिर भी
इन दीवारों का हमजोली कहलाऊंगा
मैं इन्हें छोड़ कर
भला कैसे जाऊंगा
मैं आज भी कहता हूँ
मैं कल कहूंगा
वर्तमान के गर्भ में
काल से लिपटा कल का डेरा है
और ये कल
न तेरा है न मेरा है
मगर सच तो ये है दोस्तो
जैसा भी है
ये हसीं घर
मेरा है

सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित

Views: 297

Comment

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Comment by Samar kabeer on May 15, 2020 at 7:39pm

जनाब सुशील सरना जी आदाब,अच्छी रचना हुई है, बधाई स्वीकार करें ।

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on May 13, 2020 at 10:55am

आ. भाई सुशील जी, अच्छी रचना हुई । हार्दिक बधाई ।

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