२२१/२१२१/२२२/१२१२
कहते भरे हुए हैं अब भण्डार तो बहुत
लेकिन गरीब भूख से लाचार तो बहुत।१।
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फिरता है आज देखिए कैसे वो दरबदर
जिसने बनाये खूब यूँ सन्सार तो बहुत।२।
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मजदूर अब भी जा रहा पैदल चले यहाँ
रेलों बसों को कर रहे तैयार तो बहुत।३।
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बनता दिखा न आजतक हमको भवन कोई
रखते गये हैं आप भी आधार तो बहुत।४।
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सारे अदीब चुप हुए संकट के दौर में
सुनते थे यार उनका है बाजार तो बहुत।५।
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मजदूर सह किसान से जाने क्या दुश्मनी
शासन धनिक पे कर रहा आभार तो बहुत।६।
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मौलिक/अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'
Comment
आ. भाई छोटेलाल जी, सादर अभिवादन । गजल पर उपस्थिति और सराहना के लिए हार्दिक आभार ।
आदरणीय लक्ष्मण भाई, सादर अभिवादन। देश के मौजूदा हालात और मसअलों पे बेहतरीन ग़ज़ल कही आपने, इस पर दाद और मुबारकबाद स्वीकार करें। लक्ष्मण भाई, जो अरकान आपने लिखे हैं, ये बह्र मैंने कभी नहीं देखी। इसके क़रीब की मुस्तनद बह्र ये है:
मज़ारे मुसम्मन अख़रब मक्फूफ़ महज़ूफ़
मफ़ऊलु फ़ाइलातु मुफ़ाईलु फ़ाइलुन
221 / 2121 / 1221 / 212
आपकी ग़ज़ल के मिस्रे इन अरकान पे बिलकुल सहीह बैठ रहे हैं।
आदरणीय लक्ष्मण धामी जी सादर अभिवादन इस ग़ज़ल की कितनी भी प्रशंसा की जाय कम है, यह समसामयिक गजल सबकुछ बयां कर डाली इसके लिए सादर बधाई कुबूल कीजिए
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