बह्र - मफऊल फाइलात मफाईल फाइलुन
221 2121 1221 212
अन्धों के गांव में भी कई बार ख्वामखाह
करती है रोज रोज वो ऋंगार ख्वामखाह
रिश्ता नहीं है कोई भी उससे तो दूर तक
मुजरिम का बन गया है तरफदार ख्वामखाह
फोकट में एक रोज की छुट्टी चली गई
इतवार को ही पड़ गया त्यौहार ख्वामखाह
नाटक में चाहते थे मिले राम ही का रोल
रावण का मत्थे मढ़ गया किरदार ख्वामखाह
ये बुद्ध की कबीर की चिश्ती की है जमीन
फिर आप भाँजते हैं क्यूँ तलवार ख्वामखाह
खबरे बढ़ा चढ़ा के दिखाना है इनका काम
तिल का बना दें ताड़ ये अखबार ख्वामखाह
खारों से मेरी कोई अदावत न थी मगर
पैरों मे चुभ गये हैं मेरे खार ख्वामखाह
मौलिक अप्रकाशित अप्रसारित
Comment
आदरणीय तेजवीर सिंह जी ग़ज़ल सराहना एवं उत्साह वर्धन के लिये सादर आभार
हार्दिक बधाई आदरणीय राम अवध विश्वकर्मा जी।बेहतरीन गज़ल।
खबरे बढ़ा चढ़ा के दिखाना है इनका काम
तिल का बना दें ताड़ ये अखबार ख्वामखाह
आदरणीय लक्ष्मणधामी मुसाफिर जी सादर नमस्कार
ग़ज़ल सराहना एवं उत्साह वर्धन के लिए शुक्रिया
आ. भाई राम अवध जी, सादर अभिवादन । अच्छी गजल हुई है । हार्दिक बधाई ।
धन्यवाद आदरणीय समर कबीर साहब
सहीह शब्द "बेवज्ह"221 है,रदीफ़ "बेसबब" कर सकते हैं ।
धन्यवाद आदरणीय समर कबीर साहब जी मैं रदीफ को बदलकर बेवजह कर दूंगा।
//जनाब अमीरुद्दीन खान साहब के अनुसार खामखा रदीफ में ले सकते हैं?//
नहीं ले सकते,आपको रदीफ़ बदलना पड़ेगी ।
//जानना चाहता हूँ कि क्या लफ़्ज़ ख़ामख़ा लेना दुरुस्त है या नहीं अगर दुरुस्त है तो क्या लफ़्ज़ 'ख़ाह मख़ाह' में दोनों जगह मात्राएं गिराई जा सकती हैं//
'ख़ामख़ा' कोई शब्द ही नहीं है,और "ख़ाह मख़ाह" में 'ह'
नहीं गिर सकता ।
जनाब राम अवध विश्वकर्मा जी, जैसा कि उस्ताद मुहतरम ने बताया है कि "इस शब्द को 'ख़ाह मख़ाह' भी लिख सकते हैं,कुछ मिसरों के अंत में एक साकिन की छूट इस बह्र में सहीह है" , 'ख़ाह मख़ाह' का वज़्न 21121 है और आपकी बह्र में गुंजाईश है 212 की यानि 'ख़ाह'-पर 'ह' की छूट और 'मख़ाह' - पर 'ह' की छूट = ख़ामख़ा। मैं उस्ताद मुहतरम से जानना चाहता हूँ कि क्या लफ़्ज़ ख़ामख़ा लेना दुरुस्त है या नहीं अगर दुरुस्त है तो क्या लफ़्ज़ 'ख़ाह मख़ाह' में दोनों जगह मात्राएं गिराई जा सकती हैं। सादर।
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