(1222 1222 1222 1222)
अभी जो है वही सच है तेरे मेरे फ़साने में
अबद तक कौन रहता है सलामत इस ज़माने में
तड़पता देख कर मुझको सड़क पर वो नहीं रूकता
कहीं झुकना न पड़ जाए उसे मुझको उठाने में
गले का दर्द सुनते हैं वो पल में ठीक करता है
महारत भी जिसे हासिल है आवाज़ें दबाने में
किसी दिन टूट जाएँगी ये चट्टानें खड़ी हैं जो
लगेगा वक़्त शीशे को हमें पत्थर बनाने में
अजब महबूब है मेरा जो पल में रुठ जाता है
महीने बीत जाते हैं मुझे उसको मनाने में
वहाँ आवाज़ में लर्ज़िश बदन भी काँपता है याँ
उधर दहशत,इधर भी ख़ौफ़ है नजदीक आने में
*मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
अरकान आपने ग़लत लिख दिए हैं,दुरुस्त कर लें ।
जनाब सालिक गणवीर जी आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है, बधाई स्वीकार करें ।
'किसी दिन टूट जायेगी ये चट्टानें खड़ी हैं जो'
इस मिसरे में 'जायेगी' को "जाएँगी" कर लें ।
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