पैसों से क्या जान को
हम पाएगें तोल ?
सदा - सदा को बुझ गए
जब चिराग़ अनमोल
किन-किन के थे वरद हस्त
जो पनपी यह खोट
खोज-खोज उनकी करें
क्यों ना जड़ पर चोट ?
इस बढ़ती विष बेल पर
यदि ना डली नकेल
चक्रब्याज की वृद्धि सम
बढ़ जाएगा खेल
घर के ही दुश्मन करें
जन्म भूमि से घात
पर दुख से मतलब नहीं
अपना सुख दिन - रात
पा कर शह उन्मुक्त हो
नित बढ़ते दुर्दान्त
रक्षक बल को ख़ौफ़ बिन
मार रहे पथ भ्रान्त
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
सादर प्रणाम, सुरेंद्र नाथ सिंह जी,
उत्साह बढ़ाती टिप्पणी हेतु बहुत धन्यवाद
आद उषा अवस्थी जी सादर अभिवादन। बढ़िया रचना हुई है। बधाई स्वीकार कीजिये।
सादर प्रणाम , भाई लक्ष्मण धामी जी, रचना पर आपके विचार जानकर खुशी हुई।हार्दिक धन्यवाद
आ. ऊषा जी, सादर अभिवादन । अच्छी कविता हुई है । हार्दिक बधाई ।
आदाब , आ0, हार्दिक आभार आपका
आदरणीया ऊषा अवस्थी जी आदाब, सुन्दर रचना हुई है बधाई स्वीकार करें। सादर।
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