ग़ज़ल (1222 1222 1222 1222 )
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मुहब्बत कीजिए यारो सदा दिलदार की सूरत
भरोसा कीजिए मज़बूत इक दीवार की सूरत
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रहें कुछ राज़ अपनी ज़िंदगी के राज़ ही बेहतर
नहीं अच्छा कि हो ये ज़िंदगी अख़बार की सूरत
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ख़ुशी के चंद पल ही ज़िंदगी में दोस्त मिलते हैं
मगर आते हैं ग़म अक्सर सबा-रफ़्तार की सूरत
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भले पैदा हुए हैं आप मुफ़लिस कीजिए कोशिश
न समझें आप ख़ुद को क़ल्ब से नादार की सूरत
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बुलंदी तक पहुँचना हो सभी का एक ही मक़सद
न सपने हों किसी के इक गिरी सरकार की सूरत
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क़दम आगे बढ़ाना सीख लें जो ज़ीस्त में अपनी
हमेशा जीते रहते हैं सिपह सालार की सूरत
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न टूटे हैं किसी तकलीफ़ और ज़ुल्म-ओ-सितम से हम
कभी हम रह नहीं सकते किसी लाचार की सूरत
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किसी का दिल न तोड़ें हों भले हालात कैसे भी
चिपक जाएगी उसकी बद्दुआ आज़ार की सूरत
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हमारा क्या बिगाड़ेगी 'तुरंत'आफ़त कि हो मुश्किल
ख़िज़ाँ के दौर को गिनते हैं हम गुलबार की सूरत
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गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत ' बीकानेरी
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
आदरणीय लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' जी , आदाब , हौसला आफ़जाई के लिए बहुत बहुत शुक्रिया |
आ. भाई गिरधारी सिंह जी, सादर अभिवादन । अच्छी गजल हुई है । हार्दिक बधाई ।
आदरणीय गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत ' जी, इस लाभकारी जानकारी के लिए आपका हार्दिक आभार!
आदरणीय रवि भसीन 'शाहिद' साहिब , आदाब , हौसला आफ़जाई के लिए बहुत बहुत शुक्रिया |
ऐसा माना जाता है ग़ज़ल में "या " को एक मात्रा में प्रयोग नहीं किया जा सकता , इसकी जगह शाइर "कि " से काम चलाते हैं जब या कर अर्थ देना हो और एक मात्रा लेनी हो , सादर |
आदरणीय गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत' साहिब, इस ख़ूबसूरत ग़ज़ल पर दाद और मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएँ, बहुत ख़ूब अशआर हुए हैं। हुज़ूर, मक़ते के ऊला में 'कि हो' के स्थान पर 'हो या' कहने पर विचार कर सकते हैं।
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