221 1221 1221 122
दीवार से तस्वीर हटाने के लिए आ
झगड़ा है तेरा मुझसे जताने के लिए आ/1
तू वैद्य मुहब्बत का है मैं इश्क़ में घायल
चल ज़ख्म पे मरहम ही लगाने के लिए आ/2
पत्थर हुए जाती हूं मैं पत्थर से भी ज्यादा
तू मोम मुझे फिर से बनाने के लिए आ/3
है आईना टूटा हुआ चहरा न दिखेगा
सूरत तेरी आँखों में दिखाने के लिए आ/4
ये बाज़ी यहाँ इश्क़ की मैं हार के बैठी
तू दर्द भरा गीत ही गाने के लिए आ /5
रुसवाई भी होती है मुहब्बत के सफ़र में
मैं रूठ के बैठी हूँ मनाने के लिए आ/6
ये रात अमावस की अँधेरा भी घना है
है चाँद जमीं पे भी बताने के लिए आ/7
कालेज के वो दिन बड़े याद हैं आते
टपरी की वही चाय पिलाने के लिए आ/8
तेरे थे बड़े चर्चे हिरो था तू तो अपना
बाइक पे बिठा लड़की जलाने के लिए आ/9
मास्टर जी की बेटी वो जो दिखने में गज़ब है
वो ही है तेरी भाभी सताने के लिए आ/10
डिम्पल शर्मा
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आदरणीय गुणीजनों आप सभी के सुझावों के अनुसार मैं ग़ज़ल से शेर हटा तो दूं पर मुझे समझ नहीं आ रहा की एडीट कहाँ से करूं अतः या तो इस सिलसिले में आप मेरा मार्गदर्शन करें या फिर मैं ये कर सकती हूँ की जब कभी कहीं ये ग़ज़ल सुनाऊंगी तो अन्त के तीन शेर नहीं सुनाऊंगी ।
आदरणीय लक्ष्मण धामी'मुसाफिर'जी नमस्ते,जी बहुत शुक्रिया आपका आदरणीय आपके मार्गदर्शन और हौसला अफ़ज़ाई के लिए हृदय तल से आभार आपका आदरणीय,जी सुझाव के लिए बहुत शुक्रिया आपका आदरणीय, आपके सुझावों का आगे भी स्वागत और इन्तजार रहेगा आदरणीय
आदरणीय सुरेन्द्र नाथ सिंह'कुशक्षत्रप'जी नमस्ते, ग़ज़ल तक आने के लिए और आपके मार्गदर्शन के लिए हृदय तल से आभार आपका आदरणीय, जी जरुर सम्भव क्यूं नहीं आप सभी के सुझावों के अनुसार मैं अभी ये तीनों शेर हटा दें रही हूँ, कृप्या आशीर्वाद और स्नेह बनाए रखें।
आदरणीय सालिक गणवीर जी नमस्ते,आपके मार्गदर्शन का हमेशा से ही स्वागत रहा है आदरणीय आप सभी इस विषय के अच्छे जानकार और मझे हुए फनकार हो आपके सुझाव निःसंदेह ही मेरी भलाई के लिए होते हैं इसमें अन्यथा लेने जैसा कुछ नहीं , आपके कहे अनुसार मैं इन दो शेरों को ग़ज़ल से जरुर ही हटा दूंगी आदरणीय,और ऐसे भी ये अन्त के तीन शेर मैंने बस यूं ही मस्ती भरे मन से कहे थे और चुकीं कहे थे तो ग़ज़ल के साथ यहाँ पोस्ट कर दिए , आपके मार्गदर्शन और आशीर्वाद की हमेशा जरूरत रहेगी यूं ही स्नेह बनाए रखें आदरणीय।
आ. डिम्पल शर्मा जी, सादर अभिवादन । अन्तिम दो अशआरों को छोड़ दें तो बेहतरीन गजल हुई है । हार्दिक बधाई ।
आद0डिंपल शर्मा जी सादर अभिवादन। अच्छा ग़ज़ल का प्रयास है। बधाई स्वीकार कीजिये। सम्भव हो तो अंतिम तीन शैर हटा दीजिये।
मुहतरमा डिंपल शर्मा जी
आदाब
आपने पूरी ग़ज़ल बहुत उम्दा कही है सिवाय आखिरी दो अश' आर के. हार्दिक बधाइयाँ स्वीकारें.बेहतर होता यदि आप इन्हें एडिट करतींं या हटा ही देतींं.यह एक सुझाव है कृपया
अन्यथा न लें.
आदरणीय अमीरुद्दीन'अमीर'साहब आदाब, आपका इतना कीमती वक्त मेरी साधारण सी ग़ज़ल को मिला इसके लिए हृदय तल से आपकी आभारी रहूँगी, जी आपने जो भी सुझाव दिए हैं मैं उस हिसाब से अपनी इस ग़ज़ल में जरूर बदलाव करूंगी, बहुत शुक्रिया आपका आदरणीय, आपका मार्गदर्शन और आपकी इस्लाह हौसला बढ़ाती है कृप्या आशीर्वाद यूं ही बनाए रखें।
मुहतरमा डिम्पल शर्मा जी आदाब, मैं रवि शुक्ला जी के विचार से सहमत हूँ।
नं 1से 7 तक अच्छे अश'आ़र हुए हैं उसके बाद के अश'आ़र भर्ती के हैं। आपकी ग़ज़ल को शे'र नं 7 तक के आधार पर दाद और मुबारकबाद पेश करता हूँ। कुछ सुझाव भी पेश कर रहा हूंँ :
//चल ज़ख्म पे मरहम ही लगाने के लिए आ/2 इस मिसरे के आग़ाज़ में 'चल' के बजाय 'आ' ज़्यादा मर्यादा-पूर्ण होगा।
//पत्थर हुए जाती हूं मैं पत्थर से भी ज्यादा इस मिसरे के अख़ीर में आया सहीह लफ़्ज़ 'ज़ियाद:' १२२ मात्रिक है इसलिए मिसरे में यूँ बदलाव कर सकते हैं : "पत्थर हुए जाती हूं मैं पत्थर से ज़ियादा"
//ये बाज़ी यहाँ इश्क़ की मैं हार के बैठी
तू दर्द भरा गीत ही गाने के लिए आ /5// इस शैर के ऊला के वाक्य विन्यास और सानी के शिल्प में गड़बड़ है। यूँ कर सकते हैं :
"ये बाजी यहाँ इश्क़ की मैं हार ही बैठी
तू दर्द भरा गीत सुनाने के लिए आ " 'बाजी' में नुक़्ता नहीं लगेगा।
//रुसवाई भी होती है मुहब्बत के सफ़र में
मैं रूठ के बैठी हूँ मनाने के लिए आ/6 .... मिसरों में रब्त की कमी है, ऊला यूँ कर के देख सकते हैं :
"रुसवा जो किया मुझको मुहब्बत के सफ़र में "
//है चाँद जमीं पे भी बताने के लिए आ/7 .... ज़मीं में ज पर नुक़्ता लगा लें। सादर।
आदरणीय Ravi Shukla जी नमस्ते,ग़ज़ल पर आने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद आभार आपका आदरणीय,और आपने जो महत्वपूर्ण सुझाव दिया है उसपर निश्चय ही अमल किया जाएगा,आगे से कोशिश करुंगी कुछ बेहतर कह पाने की , यदि इस ग़ज़ल में भी आपको कहीं कोई गुंजाइश लगती है तो कृप्या मार्गदर्शन करें आदरणीय बहुत शुक्रगुजार रहूंगी।
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