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यहाँ तनहाइयों में क्या रखा है
चलो भी गाँव में मेला लगा है
तुझे मैं आज पढ़ना चाहता हूँ
मिरी तक़दीर में अब क्या लिखा है
किनारे पर भी आकर डूब जाओ
नदी है,नाख़ुदा तो बह चुका है
निकलना चाहता है मुझसे आगे
मिरा साया मिरे पीछे पड़ा है
ज़रा आगे चलूँ या लौट जाऊँ
गली के मोड़ पर फिर मैक़दा है
उसी पर मर रहे हैं लोग सारे
जो अपने आप पर कब से फ़िदा है
सितारों चैन से सोने मुझे दो
फ़लक पर आज भी क्या रतजगा है?
उसे ही ढूँढती हैं मंज़िलें भी
मुसाफ़िर जो कहीं भटका हुआ है
(मौलिक एवं अप्रकाशित.)
Comment
आदरणीय अमीरूद्दीन 'अमीर'साहिब
आदाब
ग़ज़ल पर आपकी मौजूदगी और हौसला अफजाई के लिए आपका तह-ए-दिल से शुक्रिया अदा करता हूँ.
जनाब सालिक गणवीर जी आदाब, उम्दा ग़ज़ल हुई है, शे'र दर शे'र दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ। सादर।
आ. भाई सालिक गणवीर जी, सादर अभिवादन । बेहतरीन असआरों से सजी गजल के लिए ढेरों बधाइयाँ।
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