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मक़ाम ऐसे चाहत में आने लगे हैं (ग़ज़ल - शाहिद फ़िरोज़पुरी)

122 / 122 / 122 / 122

मक़ाम ऐसे चाहत में आने लगे हैं
अब उनके सितम दिल को भाने लगे हैं [1]

मज़े वस्ल में पहले आते थे जो सब
हमें अब वो फ़ुर्क़त में आने लगे हैं [2]

उन्हीं का तो ग़म हमने ग़ज़लों में ढाला
ये एहसाँ वो हम पर जताने लगे हैं [3]

नया जौर का सोचते हैं तरीक़ा
वो उँगली से ज़ुल्फ़ें घुमाने लगे हैं [4]

मुझे लोग दीवाना समझेंगे शायद
मेरे ख़त वो सबको सुनाने लगे हैं [5]

हुए इतने बेज़ार ज़ुल्मत से आख़िर
सब अपने घरों को जलाने लगे हैं [6]

वो जादू है अपनी क़लम में अदू भी
उन्हें ख़त हमीं से लिखाने लगे हैं [7]

वो बे-मिस्ल शाइर समझते हैं ख़ुद को
क़वाफ़ी फ़क़त जो मिलाने लगे हैं [8]

ये अच्छे बुरे शे'र का फ़र्क़ 'शाहिद'
समझने में हमको ज़माने लगे हैं [9]
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
–––––––––––––––––––
कठिन शब्दों के अर्थ:
1. वस्ल = मिलन
2. फ़ुर्क़त = जुदाई
3. जौर = अत्याचार
4. बेज़ार होना = अप्रसन्न होना, तंग आना
5. ज़ुल्मत = अँधेरा
6. अदू = प्रतिद्वंद्वी, दुश्मन
7. बे-मिस्ल = अनुपम, बेजोड़
8. क़वाफ़ी = 'क़ाफ़िया' का बहुवचन

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Comment by रवि भसीन 'शाहिद' on July 27, 2020 at 3:10pm

आदरणीय dandpani nahak साहिब, आदाब। आपकी ज़र्रा-नवाज़ी और भरपूर प्रोत्साहन के लिए बहुत बहुत शुक्रिय: जनाब। जी उस मिस्रे में 'नया' शब्द 'तरीक़ा' के लिए इस्तेमाल किया है (वो अत्याचार का कोई नया तरीक़ा सोच रहे हैं)। जैसा आप कह रहे हैं 'नये' भी इस्तेमाल किया जा सकता है, लेकिन फिर मिस्रे के अंत में 'तरीक़े' लिखना पड़ेगा:
नया जौर का सोचते हैं तरीक़ा
या
नये जौर के सोचते हैं तरीक़े

Comment by रवि भसीन 'शाहिद' on July 27, 2020 at 1:31pm

आदरणीय अमीरुद्दीन 'अमीर' साहिब, आदाब! आपकी नवाज़िश और हौसला-अफ़ज़ाई के लिए बे-इन्तिहा मश्कूर-ओ-ममनून हूँ जनाब-ए-आ'ली!

Comment by अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी on July 27, 2020 at 1:10pm

मुहतरम जनाब रवि भसीन 'शाहिद' जी आदाब, क्या ज़बरदस्त और लाजवाब अश'आ़र से मुज़ैय्यन शानदार मुरस्सा ग़ज़ल कही है आपने, शे'र दर शे'र भरपूर दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ। सादर।

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