एक ग़ैर मुरद्दफ़ ग़ज़ल
(2122 2122 2122 212 )
वक़्त ने हमसे मुसल्सल इस तरह की रंजिशें
ख़ुदक़ुशी को हो गईं मज़बूर अपनी ख़्वाहिशें
अजनबी जो भी मिले सारे मुहब्बत से मिले
और की हैं ख़ास अपनों ने हमेशा साज़िशें
क्या ख़ुदा नाराज़ है कुछ आदमी से इन दिनों
गर्मियोँ के बाद आईं थोक में हैं बारिशें
क्यों नुज़ूमी को दिखाता हाथ है तू बार बार
क्या लकीरें हाथ की रोकेंगीं तेरी गर्दिशें
बात सब करते हैं लेकिन दी कहाँ आज़ादियाँ
मुल्क में हैं बेटियों पर अब तलक भी बंदिशें
कब तलक बरपा रहेगा क़ह्र क़ुदरत का ख़ुदा
और जलाएँगीं हमें कब तक वबा की आतिशें
अम्न आख़िर कब तलक होगा जहाँ में ऐ ख़ुदा
कब तलक दुनिया में ये ठंडी पड़ेंगीं शोरिशें
क्या दिलों से दुश्मनी का ख़ात्मा मुमकिन नहीं
क्यों ज़मीनों की हवस है क्यों दिलों में सोज़िशें
तू जवानी के ख़यालों से 'तुरंत ' अब दूर रह
नीम-जां इस जिस्म पर अब क्या करेंगीं वर्ज़िशें
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गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत ' बीकानेरी
मौलिक व अप्रकाशित
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शब्दार्थ-शोरिशें =उपद्रव ,सोज़िशें =जलन
वर्ज़िशें=कसरतें
Comment
आपकी स्नेहिल सराहना के लिए हार्दिक आभार Dimple Sharma जी एवं नमन |
आदरणीय गिरधारी सिंह गहलोत'तुरंत'जी नमस्ते, इस खुबसूरत ग़ज़ल पर बधाई स्वीकार करें आदरणीय।
आशीष यादव जी , हौसला आफ़जाई के लिए दिल से शुक्रिया |
आदरणीय लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' जी , स्नेहिल सराहना के लिए दिली शुक्रिया एवं सादर नमन |
एक बढ़िया ग़ज़ल पर बधाई स्वीकार करें आदरणीय।
आ. भाई गिरधारी सिंह जी, सादर अभिवादन । बेहतरीन गजल हुई है । हार्दिक बधाई ।
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