(1212 1122 1212 22 /112 )
तू अपने आप को अब मेरे रू ब रू कर दे
बहुत दिनों की मेरी पूरी आरज़ू कर दे
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वबा के वार से दुश्वार हो गया जीना
ख़ुदाया अम्न को तारी तू चार सू कर दे
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बता मैं दश्त में पानी कहाँ तलाश करूँ
चल अपनी चश्म के अश्कों से बा-वज़ू कर दे
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ख़ुदा किसी को न औलाद ऐसी अब देना
जो वालिदेन की इज़्ज़त लहू लहू कर दे
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मैं जानता हूँ सदाओं की भीड़ है फिर भी
ख़ुदाया मुझ पे करम भी कभू कभू कर दे
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सभी का फ़र्ज़ है रखना नज़र पड़ोसी पर
कि अम्न ख़त्म वतन का न ये अदू कर दे
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तलाश करने हैं तुझको कभी जो ऐब तेरे
तो ख़ुद को आइने के दोस्त रू ब रू कर दे
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जनम जनम की लिए तिश्नगी मैं आया हूँ
तू ख़ाली साक़िया मय का तेरा सुबू कर दे
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ग़ज़ल करूँ मैं 'तुरंत' ऐसी नज़्म जो मुझको
हर एक वज़्म-ओ-इदारे की आबरू कर दे
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गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत ' बीकानेरी |
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
हौसला आफ़जाई के लिए बहुत बहुत शुक्रिया भाई बृजेश कुमार 'ब्रज' जी , सादर नमन |
बेहतरीन ग़ज़ल कही आदरणीय गिरधारी जी...
आदरणीय लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' जी , हौसला आफ़जाई के लिए बहुत बहुत शुक्रिया |
आ. भाई गिरधारी सिंह जी, सादर अभिवादन । अच्छी गजल हुई है । हार्दिक बधाई ।
बहुत बहुत शुक्रिया Dimple Sharma जी
आदरणीय गिरधारी सिंह गहलोत'तुरंत'जी नमस्ते, वाह बहुत ख़ूब ग़ज़ल हुई है आदरणीय खासतौर पर सातवें शेर ने तो जैसे खुद ही वाह करवाई हो , खुबसूरत ग़ज़ल पर बधाई स्वीकार करें आदरणीय।
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