अपना क्या है इस दुनिया में है जो कुछ भी धरती का
आग, हवा ये, फूल, समन्दर, चिड़िया, पानी धरती का।१।
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क्या सुन्दरवन क्या आमेजन कोलोराडो क्या गौमुख
ये हरियाली, रेत के टीले, सोना, चाँदी धरती का।२।
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हिमशिखरों की चमक चाँदनी बारामूदा का जादू
पीली नदिया, हरा समन्दर ताजा बासी धरती का।३।
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बाँध न गठरी लूट धरा को अपना माल समझकर तू
ज्ञात समय को तोला मासा रत्ती - रत्ती धरती का।४।
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धरती ने ही हमें धरा पर मिट्टी से उपजाया नित
चिन्तन कर लो नाम छोड़कर जो भी बाँकी धरती का।५।
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चुप्पी साधो मत दोहन पर शिव का इससे कोप बढ़े
दण्ड उसे तो मिलना ही है जो अपराधी धरती का।६।
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( रचना : जून १९९२ , पृथ्वी सम्मेलन के समय )
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मौलिक-अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'
Comment
आ. भाई सालिक गणवीर जी, सादर अभिवादन ।गजल पर आपकी उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया से खुशी हुई । इस स्नेह के लिए आभार ।
आ. मधु जी सादर अभिवादन । गजल पर उपस्थिति और उत्साहवर्धन के लिए आभार ।
आ. भाई दण्डपाणि नाहक जी, सादर अभिवादन । गजल पर आपकी उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए आभार ।
आ. भाई रवि भसीन जी, सादर अभिवादन । आपको गजल अच्छी लगी यह मेरे लिए हर्ष का विषय है । स्नेह व सराहना के लिए आभार ।
भाई लक्ष्मण धामी जी
सादर अभिवादन
सुंदर ग़ज़ल पाठकों तक पहुँचाने के लिए हार्दिक बधाइयाँ स्वीकार करें.
बहुत ख़ूब आदरणीय लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' भाई, इस सुंदर ग़ज़ल पर आपको ढेरों बधाई!
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