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पूछो न आप गाँव को क्या क्या हैं डर दिये
खेती को मार खेत जो सेजों से भर दिये।१।
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पाटे गये वो ताल भी पुरखों की देन जो
रख के विकास नाम ये अन्धे नगर दिये।२।
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आँगन वो चौड़ा खेत के छूटे रहट वहीं
दड़बों से आगे कुछ नहीं जितने भी घर दिये।३।
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वो भी धरौंदे तोड़ के हम से ही थे गहे
कहकर सहारा आप ने तिनके अगर दिये।४।
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कोई चमन के फूल को पत्थर बना रहा
कोई था जिसने शूल भी फूलों से कर दिये।५।
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वो भी किये हैं जाग के सबने यहाँ खराब
अच्छी सी नींद के लिए जितने पहर दिये।६।
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मौलिक-अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'
Comment
अच्छी गजल हुई है। बधाई स्वीकार करें।
आ. भाई समर कबीर जी, सादर अभिवादन ।गजल पर उपस्थिति और सराहना के लिए आभार ।
जनाब लक्ष्मण धामी 'मुसाफ़िर' जी आदाब, ग़ज़ल का प्रयास अच्छस है, बधाई स्वीकार करें ।
आ. भाई ब्रजेश जी, सादर अभिवादन ।गजल पर उपस्थिति और उत्साहवर्धन के लिए आभार ।
अच्छी ग़ज़ल कही आदरणीय
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