फ़ाइलुन -फ़ाइलुन - फ़ाइलुन -फ़ाइलुन
2 1 2 - 2 1 2 - 2 1 2 - 2 1 2
वो नज़र जो क़यामत की उठने लगी
रोज़ मुझपे क़हर बनके गिरने लगी
रोज़ उठने लगी लगी देखो काली घटा
तर-बतर ये ज़मीं रोज़ रहने लगी
जबसे तकिया उन्होंने किया हाथ पर
हमको ख़ुद से महब्बत सी रहने लगी
एक ख़ुशबू जिगर में गई है उतर
साँस लेता हूँ जब भी महकने लगी
उनकी यादों का जब से चला दौर ये
पिछली हर ज़ह्न से याद मिटने लगी
वो नज़र से पिला देते हैं अब मुझे
मय-कशी की वो लत साक़ी छुटने लगी
अब फ़ज़ाओं में चर्चा यही आम है
सुब्ह से ही ये क्यूँ शाम सजने लगी
दिल पे आने लगीं दिलनशीं आहटें
अब ख़ुशी ग़म के दर पे ठिटकने लगी
लौट आए वो दिन फिर से देखो 'अमीर'
उम्र अपनी लड़कपन सी दिखने लगी
"मौलिक व अप्रकाशित"
Comment
//मेरे और ओ बी ओ के सभी शाइरी के तालिब-इल्मों के उस्ताद जनाब समर कबीर साहिब ही हैं//
भाई, मैं कोई उस्ताद नहीं हूँ, मह्ज़ ओबीओ का एक ख़ादिम हूँ, एक बात हमेशा ध्यान में रखें कि ओबीओ पर उस्ताद शागिर्द की कोई परिपाटी है ही नहीं,यहाँ सभी सदस्यों को अपनी बात मर्यादा के दाइरे में कहने का पूरा अधिकार है,यहाँ छोटे बड़े का कोई भेद भाव नहीं है,इसलिए आप सभी से विनम्र निवेदन है कि मुझे उस्ताद कहकर संबोधित न किया करें ।
आदरणीय बसंत कुमार शर्मा जी आदाब, ग़ज़ल पर आपकी आमद और सुख़न नवाज़ी का तहे-दिल से शुक्रिया। सादर।
आदरणीय अमीरुद्दीन 'अमीर' जी आदाब
अच्छी गजल के लिए बधाई , सभी की प्रतिक्रियाएँ पढ़कर कुछ न कुछ ज्ञान अवश्य हमने प्राप्त किया.
आदरणीय जनाब आशीष यादव जी आदाब,
आपसे निवेदन है कि मुझे उस्ताद कहकर सम्बोधित न किया करें, मेरे और ओ बी ओ के सभी शाइरी के तालिब-इल्मों के उस्ताद जनाब समर कबीर साहिब ही हैं वो उस महान पेड़ के समान हैं जिसके फल और फूल सदियों तक लोगों को अपनी खु़शबू और मिठास से तृप्त करते रहते हैं और वो सुगंधित और मीठे फूल और फल यहाँ सभी सीखने वाले हैं। इस चर्चा में मैंने उस्ताद मुहतरम की बात को तस्लीम किया है और मुझे उस का फ़ायदा मिला है इसलिए बधाई के पात्र समर कबीर साहिब हैं मेरी तरफ़ से भी उनको बधाई ज्ञापित है। फिर भी आपने मुझे बधाई देकर जो उदारता दिखाई है उसके लिए मैं आपका आभारी हूँ।
उस्ताद मुहतरम समर कबीर साहिब के साथ हर एक चर्चा से बहुत कुछ सीखने को मिलता है इस चर्चा से भी ग़ज़ल सीखने वाले मेरे जैसे तालिब-इल्मों को बहुत-कुछ सीखने को मिला है इसके लिए हम सभी तालिबे इल्म उस्ताद मुहतरम जनाब समर कबीर साहिब के शुक्रगुजा़र हैं। सादर।
गजल की शिल्प पर तो उस्ताद साहेबान बखूबी चर्चा कर दिये हैं। बहुत कुछ सीखने को मिल रहा है।
बहरहाल उस्ताद अमीरुद्दीन अमीर साहब को बहुत बहुत बधाई।
मुहतरम जनाब समर कबीर साहिब आपकी ज़र्रा-नवाज़ी का बहुत शुक्रगुजा़र हूँ जो मुझ अहक़र को आपने इतनी तवज्जो दी फ़ोन पर भी इस बारे में आपसे काफ़ी चर्चा हुई है। जैसा मेरे कोट किए अश'आ़र में आपने क़ाफ़िया और हर्फ़-ए-रवी के बारे में बताया है :
//कहते हो न देंगे हम दिल अगर पड़ा पाया
दिल कहाँ कि तुम कीजै हमने मुद्दआ पाया'
इस मतले में अलिफ़ यानी आ स्वर के क़वाफ़ी हैं,'पड़ा' में अलिफ़ क़ाफ़िया है और इसका हर्फ़-ए-रवी हुआ 'ज़बर' इसी तरह 'मुद्दआ' में अलिफ़ क़ाफ़िया और हर्फ़-ए-रवी ज़बर ।
'देख तो दिल कि जाँ से उठता है
ये धुआँ सा कब कहाँ से उठता है'
मीर के इस मतले में 'नून ग़ुन्ना' क़ाफ़िया है और अलिफ़ इसका हर्फ़-ए-रवी ।
'न छाँव कहीं न कोई शजर
बहुत है कठिन वफ़ा की डगर'
इस मतले में 'र' क़ाफ़िया है और हर्फ़-ए-रवी ज़बर।//
मैं इसे तस्लीम करता हूँ और इस बिना पर अपनी ग़ज़ल के मतले
वो नज़र जो क़यामत की उठने लगी
रोज़ ही अब क़हर दिल पे ढाने लगी में नून यानि न को क़ाफ़िया और ये यानि ए की मात्रा को हर्फ़-ए-रवी तस्लीम करता हूँ। सादर।
'कहते हो न देंगे हम दिल अगर पड़ा पाया
दिल कहाँ कि तुम कीजै हमने मुद्दआ पाया'
इस मतले में अलिफ़ यानी आ स्वर के क़वाफ़ी हैं,'पड़ा' में अलिफ़ क़ाफ़िया है और इसका हर्फ़-ए-रवी हुआ 'ज़बर' इसी तरह 'मुद्दआ' में अलिफ़ क़ाफ़िया और हर्फ़-ए-रवी ज़बर ।
'देख तो दिल कि जाँ से उठता है
ये धुआँ सा कब कहाँ से उठता है'
मीर के इस मतले में 'नून ग़ुन्ना' क़ाफ़िया है और अलिफ़ इसका हर्फ़-ए-रवी ।
'न छाँव कहीं न कोई शजर
बहुत है कठिन वफ़ा की डगर'
इस मतले में 'र' क़ाफ़िया है और हर्फ़-ए-रवी ज़बर ।
इससे ज़ियादा समझाना मेरे बस से बाहर है ।
मुहतरम जनाब समर कबीर साहिब आदाब, मेरे ख़याल से क़ाफ़िया में ही हर्फ़-ए-रवी पिन्हाँ रहता है बल्कि क़ाफ़िया का आख़िरी हर्फ़ ही हर्फ़-ए-रवी होता है और कभी-कभी सिर्फ आ, ई, या ए की मात्रा भी क़ाफ़िया और वही हर्फ़-ए-रवी भी हो सकता है और कई बार ऐसे में कोई हर्फ़ बक़ौल आपके क़ाफ़िये से पहले बार-बार नहीं भी आता है। मिसाल के तौर पर चन्द मशहूर ओ मअरूफ़ शुअ़रा हज़रात के कलाम पेश करता हूँ :
कहते हो न देंगे हम दिल अगर पड़ा पाया
दिल कहाँ कि तुम कीजै हमने मुद्दआ पाया
इश्क़ से तबीअ़त ने ज़ीस्त का मज़ा पाया
दर्द की दवा पाई दर्द-ए-बे-दवा पाया
देख तो दिल कि जाँ से उठता है
ये धुआँ सा कब कहाँ से उठता है
गोर किस दिलजले की है ये फ़लक
शोला इक सुब्ह याँ से उठता है
न छाँव कहीं न कोई शजर
बहुत है कठिन वफ़ा की डगर
ग़मों के सभी असीर यहाँ
किसी को नहीं किसी की ख़बर
तोड़ क्या लाऊँ इस बला के लिए
अब तो माँ भी नहीं दुआ के लिए सादर।
"हर्फ़-ए-रवी"--क़ाफ़िये के पहले बार बार आने वाला हर्फ़(अक्षर) हर्फ़-ए-रवी कहलाता है ।
आपके क़वाफ़ी में 'ने'क़ाफ़िया है और हर्फ़-ए-रवी नदारद है ।
मिसाल के तौर पर चलना,ढलना,पलना आदि क़वाफ़ी में 'ना' क़ाफ़िया है और हर्फ़-ए-रवी 'ल' ।
"इस सादगी पे कौन न मर जाए ऐ ख़ुदा
लड़ते हैं और हाथ में तलवार भी नहीं "
आवश्यक सूचना:-
1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे
2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |
3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |
4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)
5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |
© 2024 Created by Admin. Powered by
महत्वपूर्ण लिंक्स :- ग़ज़ल की कक्षा ग़ज़ल की बातें ग़ज़ल से सम्बंधित शब्द और उनके अर्थ रदीफ़ काफ़िया बहर परिचय और मात्रा गणना बहर के भेद व तकतीअ
ओपन बुक्स ऑनलाइन डाट कॉम साहित्यकारों व पाठकों का एक साझा मंच है, इस मंच पर प्रकाशित सभी लेख, रचनाएँ और विचार उनकी निजी सम्पत्ति हैं जिससे सहमत होना ओबीओ प्रबन्धन के लिये आवश्यक नहीं है | लेखक या प्रबन्धन की अनुमति के बिना ओबीओ पर प्रकाशित सामग्रियों का किसी भी रूप में प्रयोग करना वर्जित है |
You need to be a member of Open Books Online to add comments!
Join Open Books Online