मापनी २२ २२ २२ २२
है जिनके हाथों में सत्ता.
उनका हर दिन बढ़ता भत्ता.
छोड़ दिया जिसको डाली ने,
इधर-उधर उड़ता वह पत्ता.
कीमत भारी होनी ही थी,
था पुस्तक पर मोटा गत्ता.
दुक्की-तिक्की जैसी जनता,
सत्ता तो आखिर है सत्ता.
कैसे अपनी लाज बचाये,
जिसके पास न कपड़ा लत्ता.
ऊँचाई पर भी पहरे हैं,
जैसे मधुमक्खी का छत्ता.
बंद जियादातर हैं सबके,
अपना द्वार खुला अलबत्ता.
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आदरणीय लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' जी सादर नमस्कार
आपकी हौसलाफजाई के लिए दिल से शुक्रिया
आ. भाई बसन्त कुमार जी, सादर अभिवादन । अच्छी गजल हुई है । हार्दिक बधाई ।
आदरणीय आशीष यादव जी सादर नमस्कार
आपकी हौसलाफजाई के लिए दिल से शुक्रिया
आदरणीय Samar kabeer जी सादर नमस्कार
आपकी तरमीम हमेशा ही लाजबाब होती है
आपकी हौसलाफजाई के लिए दिल से शुक्रिया
आदरणीय Harash Mahajan जी सादर नमस्कार
आपकी हौसलाफजाई के लिए दिल से शुक्रिया
आदरणीय Sushil Sarna जी सादर नमस्कार
आपकी हौसलाफजाई के लिए दिल से शुक्रिया
आदरणीय Dimple Sharma जी सादर नमस्कार
आपकी हौसलाफजाई के लिए दिल से शुक्रिया
आदरणीय श्री बसंत कुमार शर्मा साहब, एक अच्छी गजल बनी है। बधाई स्वीकार कीजिये।
जनाब बसंत कुमार शर्मा जी आदाब, ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है, बधाई स्वीकार करें ।
'जिनके भी हाथों में सत्ता'
उचित लगे तो इस मिसरे को यूँ कर लें:-
'है जिनके हाथों में सत्ता'
सुंदर ग़ज़ल हुई है आ0 बसंत कुमार जी । बधाई ।
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